पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ (पानू खोलिया)-१
अपने नाटक ’करुणावतार बुद्ध’ की अगली कड़ी जानबूझ कर प्रस्तुत नहीं कर रहा । कारण, ब्लॉग-जगत का मौलिक गुण जो…
अपने नाटक ’करुणावतार बुद्ध’ की अगली कड़ी जानबूझ कर प्रस्तुत नहीं कर रहा । कारण, ब्लॉग-जगत का मौलिक गुण जो…
कल की ना-ना तुम्हारी – मन सिहर गया, चित्त अस्थिर आगत के भय की धारणायें, कहीं उल्लास के दिन और…
मैं तो निकल पड़ा हूँ सुन्न एकांत-से मन के साथ जो प्रारब्ध के वातायनों से झाँक-झाँक मान-अपमान, ठाँव-कुठाँव, प्राप्ति-अप्राप्ति से…
कविता ने शुरुआत से ही खूब आकृष्ट किया । उत्सुक हृदय कविता का बहुत कुछ जानना समझना चाहता था ।…
उन दिनों जब दीवालों के आर-पार देख सकता था मैं अपनी सपनीली आँखों से, जब पौधों की काँपती अँगुलियाँ मेरी…
कौतूहल एक धुआँ है उपजता है तुम्हारी दृष्टि से, मैं उसमें अपनी आँखे मुचमुचाता प्रति क्षण प्रवृत्त होता हूँ आगत-अनागत…