नाट्य-प्रस्तुतियों के इसी क्रम में प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र ’राजा हरिश्चन्द्र’ पर लिखी प्रविष्टियाँ। सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय। रानी शैव्या और राजा हरिश्चन्द्र का श्मसान में पुत्र के शव के साथ संवाद इस प्रविष्टि की अद्भुत भाव-सामर्थ्य देते हैं। पिछली प्रविष्टियों राजा हरिश्चन्द्र- एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात और आठ से आगे।
रानी: (हाथ जोड़े ऊपर देखती है) मेरे प्राणनाथ! तुम कहाँ हो? काश आ जाते और एक बार जिसे अपनी गोद में खिलाया है उस लाडले का मुँह देख लेते। “प्यारे जू है जग की यह रीति विदा के समय सब कंठ लगावें।” अब क्या मेरे लिए उचित है कि अपने समय को बरबाद करूँ। मेरी श्वासों के झूले, अब मत झूलो आगे पीछे। तुम आ जाते प्राणेश, सिर्फ आज के लिए, सिर्फ आज के लिए। (कुछ थमकर) आ रहे हैं प्रियतम, अब समीप प्रतिध्वनित हो रही है उनकी पदचाप। उनका संगीत मेरी अन्तरात्मा में गूँज रहा है।
लो विश्वामित्र! राजा हरिश्चन्द्र गए, पुत्र रोहिताश्व गया। अब रानी शैव्या गंगा की गोद में लोटेगी। आपका कलेजा अब तो ठंडा हो जाना चाहिए। हरिश्चन्द्र का नाम लेकर निखिल मानवता मृत्युंजय हो जाएगी। अरे ओ मेरे अश्रु! अगाध हृदय समुद्र के अनमोल द्युतिमय मोती, रुको, रुको। तुम्हारा मूल्य आँकने वाला रस पारखी वाम विधाता ने बनाया ही नहीं। मुझे प्रियतम को ढूँढ़ लेने दो। तब फिर बहना, खूब बहना। (रोहित को देखकर) आ मेरे लाल, एक बार फिर तुम्हें भर अंक भेंट लूँ। काष्ट चिता में दूध पिलाने वाले हाथों से आग की लपट बिखेर दूँ। तू भी जल मैं भी जलूँ। अयोध्या की प्रजा, क्षमा करना! सत्य के देवता, क्षमा करना! प्रियतम के सिन्दूर से सजी माँग में पुत्र की जली राख पोतकर अखण्ड पुत्रवती बने रहने का वरदान श्मसान देव से माँग लूँगी। फिर तुम्हें दहकता देख तेरी जलन को अपने कलेजे में धारण कर, गंगा में कूद जाऊँगी (चिता में आग लगाने जा रही है।)
राजा: खबरदार! खबरदार! बिना कफन दिए आग नहीं लगाना (वहाँ पहुँच जाते हैं) शव का वस्त्र उतारकर आधा दे दो देवि! तब क्रिया करो। यह मेरे राजा का हुक्म है। (हाथ फैलाते हैं)
रानी: आँचल फाड़कर लपेटा है इस शव को। चक्रवर्ती राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र सर्पदंश से मृत हो गया है। इसे वस्त्र भी मुहाल नहीं हुआ। मैं भी अर्द्धनग्न, पुत्र भी अर्द्धनग्न। एक चिता को छोड़ देते तो कृपा होती।
(बिजली चमकती जा रही है।)
(रानी राजा को और राजा रानी को पहचान लेते हैं, फिर भी धर्म की दुहाई देते हैं।)
राजा: देवि! सत्य की विजय होती है। इसमें ही सत् चित् आनन्द की त्रिवेणी लहराती है। सनातन जीवन का यही धुव केन्द्र है। तुम्हें भी सत्यमेव जयत के ध्वज को आकाश तक लहराना ही है। छोड़ दो यह विलाप-कलाप। समय की गति निराली है। हम गुलाम हैं। कहीं रहें गुलाम का धर्म निबाहना है। यह समय बड़ा खिलवाड़ी है। आगे और पीछे सब में जो चिरन्तन सत्य है, हमें, तुम्हें उस मर्यादा से डिगना नहीं है। तुम अपना धर्म पालो, हम अपना धर्म।
रानी: प्रिय! मेरे सबकुछ, तुम यहाँ हो, मैं तुम्हीं को खोज रही थी। अब कैसा धर्म, कैसी मर्यादा? तुम्हीं मेरे सब कुछ हो। लीजिए अपना कर। (आँचल फाड़ने जा रही है, राजा लेने को हाथ बढ़ा रहे हैं।)
(तब तक पृथ्वी काँपने लगती है, गंगा की धारा रुक जाती है। धन्य-धन्य की ध्वनि के साथ नेपथ्य में बाजे बजने लगते हैं। त्रिदेव, धर्म, सत्य आदि प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र की जयकार करने लगते हैं।)
धर्म: बस्! बस्! बहुत हो गया, बहुत हो गया। अब त्रैलोक्य को सँभालो अन्यथा महाप्रलय हो जाएगी। मैं ही चाण्डाल बनकर श्मसान में तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।
सत्य: राजा हरिश्चन्द्र की जय हो! मैं ही ब्राह्मण वेशधारी उपाध्याय बना था, जहाँ शैव्या और रोहिताश्व को शरण मिली थी।
(विश्वामित्र का प्रवेश)
विश्वामित्र: आओ राजन! (गले लगा लेते हैं) ऐसी सत्य-निष्ठा न हुई और न होगी। तुम्हारी परीक्षा भी ले रहा था, तुम्हें सँभाले भी था। सोना अग्नि तप्त होकर ही तो दीप्त होता है। विजयी भवः।
(हरिश्चन्द्र और शैव्या सभी ऋषि तथा देवों को प्रणाम करते हैं।)
मैंने ही तक्षक को डँसने के लिए भेजा। (जल लेकर रोहित के ऊपर छिड़कते हैं) रोहित, उठ जाओ बेटा!
(रोहित उठकर सबको प्रणाम करता है।)
शिव: काशी नगरी हरिश्चन्द्र के आगमन से गरिमामय हुई। तुम धन्य हो! (पुष्पवर्षा होती है।)
नारायण: हे धर्म, सत्य, सदाचरण के प्रतिमूर्ति! तुम्हारी कीर्ति यावत् चन्द्रदिवाकर अक्षय रहेगी। रथ तैयार है। अयोध्या का राज सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। चलो! (विश्वामित्र हाथ पकड़कर सबको रथ में बैठाते हैं, पुष्प वर्षा होती है, सूत्र-वाक्य गूँजता है)
सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते।
॥समाप्त॥
सत्यमेव जयते।
सत्यमेव जयते, अन्ततः सत्य की ही जीत होती है..
जय हो..
दर्द जब हद से बढ जाये, दवा होता है – लेकिन सत्यनिष्ठा हारती नहीं कभी! यह कथा पढना-सुनना-देखना मेरे लिये सदा ही एक कठिन परीक्षा जैसा होता है लेकिन अंत दिलासा दिलाता है।
आभार!
हाँ, अंत ही थामता है, और निश्चयी भी बनाता है हमें।
गदगद हूँ सूत्रधार!!