मैं स्वयं

हौं प्रसिद्ध पातकी

यह पृष्ठ भी लिखा जा रहा है। कभी विचार नहीं आया था कि कुछ अपनी रहनी-करनी भी लिखूँगा। यूँ तो अनगिनत बार इन प्रविष्टियों में-कविताओं में या मेरे गद्य में- मैं और मेरा बहुत कुछ सहज ही व्यक्त हो गया है; लेकिन यहाँ कुछ कूट-वाक्य नहीं, साफ-साफ  लिखने का मन है। साफ-साफ इसलिए कि हमेशा अपने होने को लेकर, एक अनजानी खोज के लिए एक बेचैनी महसूस करता रहा हूं मैं, और इसी बेचैनी को समझने में जीवन न जाने कितना यूँ ही जी लिया गया और जब ब्लॉगिंग में रमा तो न जाने कितनी प्रविष्टियाँ इस बेचैनी के नाम हो गयीं। अपने अस्तित्व के प्रश्नों से उलझा और कुछ राह भी खोजी। जो सूक्ष्म पा सका, वह अभिव्यक्ति की कारा से मुक्त है, जो कह सकने योग्य है, पता नहीं वह किसी काम का है भी या नहीं।

सरल-सा आदमी हूँ। जीवन में भी सरल और कार्य में भी। हाँ यह कहने में संकोच नहीं कि यह सरलता कई बार भार-सी लगने लगती है। सोचता हूँ, इतनी सरलता क्यों? पर अपनी नियति से कैसे लड़ूँ!

सापेक्ष गति जीवन है। जीवन एक नियति। हर क्षण अपनी नियति में अन्य क्षणों से अलग होता है। जैसे किसी चिन्तन विशेष से उपजी अनुभूति की नियति और फिर उस अनुभूति के अतीत हो जाने से उपजे क्षण की नियति- दोनों एक दूसरे से सर्वथा अलग। और इन सबके बाहर या भीतर चलता रहता है मेरे जैसा आदमी-अपनी नियति के साथ या अपनी नियति पर ही कदम रखता हुआ। 

न संशयात्मा..

मैं आस्थावान हूँ-घोर आस्थावान! अतीत में भी आस्था रखता हूँ, वर्तमान में भी। प्रश्नमूलकता पर टूट नहीं पड़ता। मन में यह बात रहती है कि प्रश्नमूलकता को लेकर कुछ उत्कृष्ट अथवा अन्यतम रचा नहीं जा सकता। अनास्था और संशय साहित्य एवं किसी भी अन्य कला के उपकरण नहीं बन सकते।

ईश्वर पर आस्था रखता हूँ, तो मनुष्य पर भी और अधिक। इस धरती से सुन्दर किसी अन्य स्थान की कल्पना नहीं करता। काव्य-शील हूँ, सो कल्पना का भी दाय स्वीकार करता हूँ।

अपनी आस्था में निःसन्देह टूटता हूँ, कई बार हताश भी और निराश भी। चुक भी जाता हूँ कई बार। प्रयोग करता रहता हूँ अपनी आस्था के साथ।

कोरी बुद्धि का अभ्यासी नहीं..

विचार करता हूँ, पर वितर्क नहीं। कोरी बुद्धि का अभ्यासी नहीं हूँ। कोरी प्रज्ञा (विवेक बुद्धि) अंध स्पर्धा है। वह कोल्हू के बैल की दौड़ है। उसे करुणा से अनुशासित करना चाहता हूँ। यह भी सच है कि इस प्रक्रिया में कई बार अटकता हूँ।

एक दिक्कत का सामना कई बार करता हूँ – बहुत आस्थावान हूँ, रहना चाहता हूँ सो अतिशय विनम्र हूँ। यह अतिशयता मेरी कमजोरी है, बड़ी न्यूनता है।

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मैं इस संसार के कर्मों और समाज की गतिविधियों से निःसंग रहने की कोशिश करता दिखता हूँ। नहीं चाहता कि सब कुछ बस देखूँ, पर देखता रह जाता हूँ। यह आस्था का, विनम्रता का ही एक दूसरा पहलू है-निःसंगता। खीझ जाता है अवचेतन कई बार अपनी इस बेबसी पर।

विनयशीलता के मूल में जो-हो-सो का भाव गरल के घूँट सा लगता है। लगता है जैसे मेरी निराशा ने ही विनय और निःसंगता का छद्म वेश धारण कर लिया है और सहिष्णुता के नाम पर मैं हृदय पर एक बोझ ढो रहा हूँ अनाचार और पाप का। मैं तटस्थता को सहिष्णुता मान बैठता हूँ – यह प्रतीति बार-बार होती है मुझे। सच्ची या झूठी नहीं पता।

“सौन्दर्य चेतना है, चेतना जीवन है”-यह उक्ति संपुट की तरह जपता हूँ। मन अतृप्त नहीं रखता। सौन्दर्य को पी जाने की अभीप्सा में रहता हूँ। नियंता की कारीगरी पर रीझता हूँ। नाम का नहीं पर राम का भक्त हूँ। सगुण निर्गुण के फेरे नहीं पड़ता- भक्त हूँ। सौन्दर्य, धर्म और भक्ति चेतना के अनोखे स्वरूप हैं जिनसे जीवन निर्मित होता है। वैष्णव हूँ, भारतवर्ष की अपराजित जीवन चेतना का प्रतीक धर्म है यह। स्वचालित और अंतर्गतिक धर्म। अपने देवता के प्रति प्रणति पर पलायन या पराजय नहीं। ’तू दयाल, दीन हौं’ में निखरी है प्रणति..जीवन की सार्थकता।

मेरी निधि मेरा प्रेम है। सब कुछ खोकर भी इसे बचाना चाहता हूँ। दरिद्रता का दुख नहीं, प्रेमहीन होने से डरता हूँ। यह प्रेम मुझे इस संसार में कुछ अनोखा बना देता है। कई लोगों के लिए पहेली-सा, कुछ के लिए बकवास। प्रेमपूर्ण मेरी मुस्कान अनगिन लोगों के लिए अवसर-सी होती है। मेरा उपयोग सहज ही कर पाते हैं वह। मैं उपयोग के लिए उपयुक्त हूँ-यह कईयों को लगता है, क्योंकि मैं मना नहीं कर सकता। मैं स्वजनों के लिए अक्षम हूँ, परायों के लिए अत्यन्त सक्षम। मैं किन्हीं कार्यों में दक्ष हूँ, पर वह किस काम का। मैं अपने प्रेम में अनगिन बार मुग्ध-मौन हूँ तो कई बार हतवाक्‌।

लोग आकर्षित करते हैं मुझे जब सहज होते हैं। सहजता सजीवता है, यह भरोसे की बात है मेरे लिए। व्यक्त हो जाने वाला शील चाहिए मुझे..पर अब तक प्रायः असफल हूँ इसमें। कण्ठावरुद्ध सहानुभूति का मतलब क्या? स्वगत हास का अर्थ क्या? मैं खण्डित प्राण हूँ इस अर्थ में। निष्प्राण संस्कारों को त्यागना मेरे लिए मतलब की बात है। कर्मोन्मुख शील चाहिए मुझे मेरे भीतर। यह दृढ़ भाव भर रहा हूँ अपने भीतर। नए संकल्पों में एक है यह। चाहता हूँ मन का मन में ही न रहे। स्वसहाय बनूँ, असहाय नहीं।

करुणा मुझे मनुष्यता का मतलब समझाती है, सो करुण भाव सँजो कर रखता हूँ। शत्रु को भी संवेदना के सकारात्मक भाव से निरखता हूँ। अटपटा है यह सबके लिए, मेरे स्वजनों के लिए भी। यह करुण संवेदना मुझे कई बार हहराती है। मैं खिन्न-सा हो जाता हूँ कई बार। समझ नहीं पाता कि मेरे भीतर यह निरपेक्ष अद्वितीयता की चाह क्यों है? क्यों अपनी परिधि बढ़ाना चाहता हूँ मैं जबकि यह वर्द्धमान परिधि मुझे स्वयं ही बन्दी बना देती है। फिर इन क्षणों में एकान्त ढूँढ़ता हूँ। अपने को समझाता हूँ कि करुणा की उदात्तता तो यही है न!

साहित्य व्यसन : मेरा पठन

अध्ययन अभ्यास नहीं, स्वभाव है मेरे लिए। किताबें किसी भी धन से बड़ा धन। पुस्तक-पठन में ’फ्रांसिस बेकन’ (Francis Bacon) की उक्ति का ख़याल रहता है मन में-

“Some books are to be tasted, others to be swallowed, and some few to be chewed and digested: that is, some books are to be read only in parts, others to be read, but not curiously, and some few to be read wholly, and with diligence and attention.”

Of Studies: Francis Bacon

किताबें साहचर्य देती हैं, दुःख और कष्ट में सहलाती हैं, सहाय्य होती हैं। ऐसी बहुत सारी बातें महसूस करने वाली हैं, पर न जाने क्यों मैं इन्हें बाँटना चाहता हूँ सबसे। जब भी कहता हूँ किसी से यह सब, मुस्करा कर कहता है, “कोटेशन बोलने लगे फिर से”?

हिन्दी और अंग्रेजी की किताबें ज्यादा पढ़ी हैं-कारण विश्वविद्यालय-स्तर पर विषय के तौर पर इन दोनों भाषाओं की पढ़ाई है। संस्कृत पढ़ने की ईच्छा रहती है हमेशा, पर जानता बहुत कम हूँ। अन्यतम रामचरित मानस ईष्ट ग्रंथ है मेरे लिए और बाबा तुलसी आराध्य सर्जक। हिन्दी  का बहुत कुछ सिखाया इस ग्रंथ ने ही। जायसी, कबीर, प्रसाद, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण, अरुण कमल को निरंतर पढ़ते रहने की कोशिश में रहता हूँ।

हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, कुबेरनाथ राय के निबंध मन से पढ़ता हूँ। शुक्ल जी, दिवेदी जी व  नामवर सिंह के अतिरिक्त आलोचना-समीक्षा पर्याप्त नहीं पढ़ी। पुरुषोत्तम अग्रवाल को ज़रूर पढ़ गया पूरा। आधुनिक आलोचना बहुत लुभाती नहीं। अंग्रेजी में कवितायें पढ़ता हूँ, निबंध भी। अंग्रेजी के पुराने नाटक पढ़े हैं, नये भी मिल जाते हैं तो पढता हूँ। अंग्रेजी के उपन्यास कम पढ़ता हूँ। संस्कृत में कालिदास, बाणभट्ट, भास, भारवि के अतिरिक्त बहुत कम पढ़ा है। कुछ वैदिक ऋचायें, औपनिषदिक चर्चाएँ पढ़ने की ललक रहती है, इन्हें जुटा कर रखता हूँ। आचार्य शंकर की सौन्दर्य लहरी से टकराया और मुग्ध-मौन इस रचना को पी रहा हूँ।

साहित्य सहारा है। मेरे कई प्रयत्नों का माध्यम भी। साहित्य में परंपरा मूलबद्ध है। मैं इसके माध्यम से पुराने संवेदनों, सुख-दुख, जय-पराजय से संयुक्त होता हूँ। नए शब्दों से मिलता-जुलता हूँ जो नए जीवन के प्रतीक ही नहीं, प्रमाण भी होते हैं। हर विधा अपनी-सी लगती है, पर कविता हृदय के अधिक समीप है। कविता का छंद खूब रुचता है। प्रकृति की योजना ही ऐसी है कि उद्दीप्त भावना छंद का रूप ले लेती है। बहुधा स्वगत रचता हूँ। परन्तु स्वगत होते हुए भी वह जीवनगत तो होता ही है और किसी क्षण पूर्णतः निर्वैयक्तिक भी।

आलेखों और निबंधों के अतिरिक्त नाटक लिख डाले हैं कुछ। परंपरा लुभाती है, और उस परंपरा-क्षितिज के नक्षत्र भी। नाटकों का विषय इन चरित्रों का जीवन ही है। व्यक्तिगत संवेदना के कई आयाम, विभिन्न विमायें सहजतः आलेखों व निबंधों में मिलेंगे। कहानी लिखने की कोशिश करता हूँ, लिखी नहीं जाती अच्छी। खुद ही संतुष्टि नहीं। अच्छी रचनायें पढ़ने के क्रम में उसे समझने के लिए किए गए प्रयत्न ही कई बार मेरी अनुवादित रचनाओं के हेतु बनते हैं। लोसा के  निबंध एवं अंग्रेजी कविताओं के कुछ अनुवाद ऐसे ही प्रयत्न थे।

मेरी थोड़ी दिनचर्या

कस्बाई ज़िन्दगी की अद्भुत सारग्राही दिनचर्या है मेरी। मन सादा है, पर उसमें इस दिनचर्या से कई रंग भर जाते हैं। मेरे क़स्बे की ्लघुता मुझमें विराटता भरती है। मेरे पास बहुत कुछ नहीं होता, पर ’थोड़ा कुछ’ मुझे अतिरिक्त भव्यता देता है। अपनी कस्बाई ज़िन्दगी में रोज निखरता है यह चिन्तनशील मन। आँखे मुचमुचाते गौरेया के बच्चे की तरह चहचहाता निकलता हूँ अपने स्व के खोल से। निरखता हूँ संसार, जो दिखता है वह भी और जो नहीं दिखता है उसकी दृश्य चाह भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करने को प्रेरित करती है। इसलिये अपना कुछ भी नहीं पर संसार का ही सब लेकर इतराता हूँ, लिखता जाता हूँ।

ब्लॉग मेरी अभिव्यक्ति का अनिवार्य अंग है अब। शुरु किया था, तो सोचा नहीं था कि इससे इतने भीतर तक संयुक्त हो जाऊँगा। डायरियों में, कापियों में लिखी रचनायें यहाँ उतार देने भर के लिए आया था। देखा, यहाँ तो अभिव्यक्ति की अद्भुत सजावट थी। फिर रम गया। अन्तर के अनुभूति क्षण सहज ही प्रदर्शित होने लगे, अभिव्यक्त आकार लेने लगी। न कोई बनावट, न कोई व्यर्थ का आवरण।

सच्चा शरणम्‌ ने लीक दी, सूत्र दिया-’कुछ और डूबो मन’। डूबता-उतराता लिखता रहा। संसार को अखिलं मधुरम्‌ मान कर मुग्ध होता रहा और उसकी अभिव्यक्ति करती अपने पिता की रचनाधर्मिता से चमत्कृत, इसलिये ’अखिलं मधुर‍म्‌’ में पिता जी की रचनायें देता रहा। क्रम चल रहा है। भोजपुरी की अपनी व पिताजी की रचनाओं के लिए एक ब्लॉग अंजोर अस्तित्व में है। एक अंग्रेजी ब्लॉग भी बनाया, भारतीय (अधिकतर हिन्दी) साहित्यकारों व रचनाओं का परिचय अंग्रेजी में प्रस्तुत करने के लिए, यद्यपि बहुत लिख नहीं पाया, पर प्रतीति अब भी बनी हुई है। आगे शायद यह ब्लॉग भी निरंतर लिखा जाता रहे। तो सब आपके सामने है, मैं भी और मेरी करनी भी।