प्रस्तुत है पेरू के प्रख्यात लेखक मारिओ वर्गास लोसा के एक महत्वपूर्ण, रोचक लेख का हिन्दी रूपान्तर। ‘लोसा’ साहित्य के लिए आम हो चली इस धारणा पर चिन्तित होते हैं कि साहित्य मूलतः अन्य मनोरंजन माध्यमों की तरह एक मनोरंजन है, जिसके लिए समय और विलासिता दोनों पर्याप्त जरूरी हैं। साहित्य-पठन के निरन्तर ह्रास को भी रेखांकित करता है यह आलेख। इस चिट्ठे पर क्रमशः सम्पूर्ण आलेख हिन्दी रूपांतर के रूप में उपलब्ध होगा।
पुस्तक मेलों या पुस्तक की दुकानों पर प्रायः ऐसा होता रहता है कि कोई सज्जन व्यक्ति मेरे पास आता है और मुझसे हस्ताक्षर की बात करता है, और कहता है, “यह मेरी पत्नी के लिए है, मेरी छोटी लड़की के लिए है या मेरी माँ के लिए है।” वह इसे स्पष्ट करते हुए कहता है कि वह बहुत बड़ी पढ़ने वाली है और साहित्य से प्रेम करती है। मैं तुरंत पूछ बैठता हूँ, “और तुम्हारी अपने बारे में क्या स्थिति है? क्या तुम्हें पढ़ना पसन्द नहीं है?” एक ही तरह का उत्तर प्रायः मिला करता है, “वास्तव में मुझे पढ़ना पसन्द है किन्तु मैं बहुत व्यस्त आदमी हूँ।” दर्जनों बार मैंने ऐसा स्पष्टीकरण सुना है। यह आदमी और इसी तरह के हजारॊ आदमी ऐसे हैं जिन्हें अनेकों महत्वपूर्ण कार्य करने हैं, उनकी अनेकों प्रतिबद्धताएँ हैं, अनेकों उत्तरदायित्व हैं और वे अपना मूल्यवान समय किसी उपन्यास में सिर गड़ा कर, कोई कविता की किताब पढ़ते हुए या घंटों-घंटों साहित्यिक लेख पढ़ते हुए नष्ट नहीं करना चाहते हैं। इस व्यापक विचारधारा के अनुसार साहित्य एक गौण क्रिया-कलाप है। निःसन्देह आनन्ददायक और लाभदायक है जो संवेदनाएं और अच्छे रंग-ढंग प्रदान करता है, लेकिन वास्तव में यह एक मनोरंजन है, एक प्यारा मनोरंजन है जिसे आदमी केवल मनोरंजन के लिए ही प्रयोग में लाने पर समय दे सकता है। यह कुछ ऐसी चीज है जो खेलों, चलचित्रों, ताश या शतरंज के खेल के बीच में बैठाई जा सकती है, और बिना सिर खपाए इसको बलिदान कर दिया जा सकता है जब जीवन के संघर्ष में कोई कार्य या कोई ड्यूटी “प्राथमिकता” के रूप में अनिवार्य रूप से सामने आ जाती हो।
मारिओ वर्गास लोसा
पेरू के प्रतिष्ठित साहित्यकार। कुशल पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी। वर्ष २०१० के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता।
जन्म : २८ मार्च, १९३६
स्थान : अरेक्विपा (पेरू)
रचनाएं : द चलेंज–१९५७; हेड्स – १९५९; द सिटी एण्ड द डौग्स- १९६२; द ग्रीन हाउस – १९६६; प्युप्स –१९६७; कन्वर्सेसन्स इन द कैथेड्रल – १९६९; पैंटोजा एण्ड द स्पेशियल -१९७३; आंट जूली अण्ड स्क्रिप्टराइटर-१९७७; द एण्ड ऑफ़ द वर्ल्ड वार-१९८१; मायता हिस्ट्री-१९८४; हू किल्ड पलोमिनो मोलेरो-१९८६; द स्टोरीटेलर-१९८७;प्रेज़ ऑफ़ द स्टेपमदर-१९८८;डेथ इन द एण्डेस-१९९३; आत्मकथा–द शूटिंग फ़िश-१९९३।
ऐसा स्पष्ट मालूम होता है कि साहित्य अधिक से अधिक औरतों के क्रिया-कलाप की चीज हो गयी है। पुस्तक की दुकानों में, किसी सम्मेलन में या लेखकों के सार्वजनिक पठन में और मानविकी के लिए समर्पित विश्वविद्यालय के विभागों में भी स्त्रियाँ स्पष्ट रूप से पुरुषों से आगे निकल जाती हैं। पारंपरिक रूप से ऐसा स्पष्टीकरण दिया जाता है कि मध्यमवर्ग की स्त्रियाँ ज्यादा इसलिए पढ़ती हैं क्योंकि वे पुरुषों की अपेक्षा कम काम करती हैं और उनमें से अनेकों ऐसा अनुभव करती हैं कि वे पुरुषों की अपेक्षा आसानी से उस समय को प्रयोग में ला सकती हैं जो उनके द्वारा कल्पनाओं और भावों के लिए समर्पित किया जाता है। मैं कुछ हद तक ऐसी व्याख्याओं से खीझ जाता हूँ जो पुरुष और स्त्रियों को एक असंवेदनशील श्रेणी में विभक्त कर देती हैं और प्रत्येक वर्ग को उनके गुण, चरित्र और उनकी कमियों के रूप में स्थापित कर देती हैं; लेकिन निःसन्देह साहित्य के कम से कम पाठक हैं और जो थोड़े बहुत पाठक रह भी गए हैं स्त्रियाँ उनकों पीछे छोड़ देती हैं।
प्रायः यही दशा हर जगह है। उदाहरण के लिए स्पेन में ’जनरल सोसाइटी ऑफ स्पेनिश राइटर्स’ (General Society of Spanish Writers) ने अपने ताजा सर्वेक्षण में इस बात को अभिव्यक्त किया है कि देश की जनसंख्या का आधा भाग कभीं भी कोई किताब नहीं पढ़ा है। इस सर्वेक्षण ने यह भी बताया है कि उन कम लोगों में, जो पढ़ते भी हैं, उनमें स्त्रियाँ जो पठनशील हैं वे पुरुषों से ६.२ प्रतिशत के हिसाब से आगे निकल जाती हैं। यह एक ऐसा अन्तर है जो बढ़ता हुआ दिखायी दे रहा है। मुझे इन स्त्रियों से बड़ी प्रसन्नता है, लेकिन मुझे ऐसे मनुष्यों और लाखों-लाखों ऐसे मनुष्यों पर बड़ा दुख होता है, जो पढ़ तो सकते थे लेकिन न पढ़ने का निर्णय ले बैठे।
मुझे ऐसे लोगों पर इसलिए दया नहीं आती है कि वे एक आनन्द को खो रहे हैं बल्कि इसलिए भी कि मुझे विश्वास है कि बिना साहित्य का कोई समाज, या ऐसा समाज जिसमें साहित्य को पदावनत कर दिया गया है वह आध्यात्मिक रूप से उद्दंड होगा। साहित्य को इस तरह से किनारे कर दिया जाय जैसे वह सामाजिक और व्यक्तिगत दोष हो और समाज में उसे एक अलग टुकड़े में बाँट दिया गया हो, तो ऐसा समाज एक असभ्य समाज होगा और यह अपनी स्वतंत्रता को भी खतरे में डाल देगा। मैं साहित्य को अवकाश के क्षणों में विलासिता की वस्तु के विपक्ष में कुछ तर्क प्रस्तुत करना चाहता हूँ और इस पक्ष में तर्क देना चाहता हूँ कि साहित्य मस्तिष्क के क्रियाकलापों के लिए एक प्राथमिक और आवश्यक वस्तु है और आधुनिक प्रजातांत्रिक समाज, स्वतंत्र व्यक्तियों के समाज के लिए नागरिकों के निर्माण कार्य की एक ऐसी वस्तु है जिसे हटाया नहीं जा सकता है।
क्रमशः–
पूरे लेख को निम्न कड़ियों से क्रमशः पढ़ा जा सकता है –
A blogger since 2008. A teacher since 2010, A father since 2010. Reading, Writing poetry, Listening Music completes me. Internet makes me ready. Trying to learn graphics, animation and video making to serve my needs.
बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक होने जा रहा है यह लेख … क्योंकि यह स्थापित करेगा की साहित्य आज के युग में भी क्यों आवश्यक है और उसे हाशिये पर करके कहीं हम एक बड़ा मोल तो नहीं चुकायेगें !
इस लेख की अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी. मुझे भी यही लगता है कि साहित्य व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यावश्यक है — "साहित्य मस्तिष्क के क्रियाकलापों के लिए एक प्राथमिक और आवश्यक वस्तु है और आधुनिक प्रजातांत्रिक समाज, स्वतंत्र व्यक्तियों के समाज के लिए नागरिकों के निर्माण कार्य की एक ऐसी वस्तु है जिसे हटाया नहीं जा सकता है " मैं भी अक्सर समय की कमी का स्पष्टीकरण देती हूँ साहित्य ना पढ़ पाने के लिए, पर इसका कारण है कि मैं साहित्य को बहुत गंभीरता से लेती हूँ.
व्यापार की दुनिया और साहित्य की दुनिया आदिम जमाने से एक दुसरे के विरोध में हैं .. असंतुलित से द्वंद्व में .. पशुबल, धनबल और सत्ताबल एक तरफ; साहित्य और अध्यात्म का बल दूसरी तरफ ..कितनी हैरान सी करने वाली बात है २५ सदियों में मुश्किल से कहीं कोई एक बुद्ध या एक ईसा या एक नानक प्रगट हो पाता है .. शिकार होने और शिकार करने की मानसिकता से मुक्त हो कर जीने की बात करता है और अनसुना ही चला जाता है…देखते हैं मारियो वर्गास लोसा क्या कहते हैं..हिमांशु जी, यह वार्तालाप तो सचमुच दिलचस्प होने वाला है!!
बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक होने जा रहा है यह लेख …
क्योंकि यह स्थापित करेगा की साहित्य आज के युग में भी क्यों आवश्यक है और उसे हाशिये पर करके कहीं हम एक बड़ा मोल तो नहीं चुकायेगें !
बहुत अच्छा आलेख, अगली कडी का इंतजार रहेगा।
इस लेख की अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी. मुझे भी यही लगता है कि साहित्य व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यावश्यक है —
"साहित्य मस्तिष्क के क्रियाकलापों के लिए एक प्राथमिक और आवश्यक वस्तु है और आधुनिक प्रजातांत्रिक समाज, स्वतंत्र व्यक्तियों के समाज के लिए नागरिकों के निर्माण कार्य की एक ऐसी वस्तु है जिसे हटाया नहीं जा सकता है "
मैं भी अक्सर समय की कमी का स्पष्टीकरण देती हूँ साहित्य ना पढ़ पाने के लिए, पर इसका कारण है कि मैं साहित्य को बहुत गंभीरता से लेती हूँ.
"बिना साहित्य का कोई समाज, या ऐसा समाज जिसमें साहित्य को पदावनत कर दिया गया है वह आध्यात्मिक रूप से उद्दंड होगा।"
Well said, Mario Llosa!
Brilliantly translated, Himanshu!
बहुत सुंदर ओर अच्छा लेख धन्यवाद
इस लेख का अनुवाद कर बेहतरीन कार्य कर रहे हैं आप। लोसा जी का विश्लेषण रोचक है और उनके आगे के तर्कों को भी जानना समझना रुचिकर रहेगा।
गंभीर जुंबिशों हेतु।
शुक्रिया।
साहित्य समाज और व्यक्तित्व के निर्माण के लिए अत्यावश्यक है ….
सही ..!
इस अनुवाद माला में और भी बहुत कुछ जानने को मिलेगा ….
व्यापार की दुनिया और साहित्य की दुनिया आदिम जमाने से एक दुसरे के विरोध में हैं .. असंतुलित से द्वंद्व में .. पशुबल, धनबल और सत्ताबल एक तरफ; साहित्य और अध्यात्म का बल दूसरी तरफ ..कितनी हैरान सी करने वाली बात है २५ सदियों में मुश्किल से कहीं कोई एक बुद्ध या एक ईसा या एक नानक प्रगट हो पाता है .. शिकार होने और शिकार करने की मानसिकता से मुक्त हो कर जीने की बात करता है और अनसुना ही चला जाता है…देखते हैं मारियो वर्गास लोसा क्या कहते हैं..हिमांशु जी, यह वार्तालाप तो सचमुच दिलचस्प होने वाला है!!
@निशान्त जी,
धन्यवाद ! आप प्रशंसा कर जाँय अनुवाद की… तो इतरा सकता हूँ न !
@समय,
आप आये, प्रसन्न हूँ !
@श्याम जी,
आप आयें, टिप्पणी करें..तो मन मयूर-सा हो उठता है । आभार !
….
साहित्य समाज और व्यक्तित्व के निर्माण के लिए अत्यावश्यक है .
…आँखें खोल देने वाली है यह पोस्ट।