पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -१
पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -२ से आगे….
आदमी है ध्वस्त —
उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर,
के अन्दर, के अन्दर के आदमी के हाथ ।
उस आदमी के हाथ —
सुन नहीं पाता जो, समझ नहीं पाता,
करता नहीं जो महसूस….देख नहीं पाता ।
काला भुजंग वह
समाधिस्थ, लीन ।
और वहाँ अंदर तक ठेठ
माँ-पिता प, पुत्र-पुत्री पन –
आदमी पन, पति-पत्नी पन –
किसी का भी नहीं है प्रवेश लेश।
ये तो है वस्त्र रंगारंग, सारे ओढ़े हुए
–और वह निर्वसन देश
–वह काला भुजंग भी ।
पहुँच नहीं सकते हम वहाँ इन वस्त्रों में,
तोड़ नहीं सकते समाधिस्थ का ध्यान ।
वह एक बहुत बीहड़ कन्दरा के, कन्दरा के
कन्दरा के अन्दर की कन्दरा है ….बीहड़तम ।
(अनाहत का देश ।
शून्य प्रदेश ।
छह चक्रों के पार ।
—शायद ।
—शायद नहीं ।)
और इसलिये —
सिर्फ इसीलिये —
बेटे की मौत पर
तोड़ता है माथा, छाती कूटता है पिता,
फिर / धीरे-धीरे —
हो जाता है आप ही शान्त-सुस्थिर,
और जीने लगता है सामान्य ।
और इसीलिये आज
जीवनेति करने को प्रस्तुत प्रेमिका
कल — हँस-हँस करवाती सिंगार नये जीवन का ।
बन जाती दुल्हन
गिरस्थिन
सुहागन वह पूर्ण काम ।
चाहते हुए भी नहीं, मानते हुए भी नहीं ,
जल हो जाता स्थिर…..प्रशान्त ।
इसलिये, इसीलिये
व्यर्थ है सब-कुछ —
सारे नारे हैं व्यर्थ,
छटपटाहट है व्यर्थ,
सारी भागदौड़ व्यर्थ ।
जल की प्रकृति हम बदल नहीं सकते —
रख नहीं सकते उसे अंदर तक आलोड़ित,
एक बार, हर बार ….. लगातार ।
क्योंकि वहाँ अन्दर के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर
मुक्त हंस आदमी वह —
सारी स्थितियों से मुक्त ….. अस्पर्शित ।
क्या कीजियेगा —
अपनी इन आँखों से, कानों से, त्वचा-संवेदना से ?
वहाँ तो कुछ भी नहीं है, बस —
’कुछ भी नहीं ’ है वहाँ ।
और हम –सब परास्त, पराजित जीव :
कि हमारी आँखें उसकी आँख विहीनता से पराजित ।
हमारे कान उसकी कान-विहीनता से पराजित ।
हमारी त्वचा उसकी गैंडे की खाल से पराजित…परास्त ।
हो लें भले ही हम अपने तक–
आन्दोलित हो लें, विलोड़ित हो लें,
काँपे, थर्रा लें, विगलित हो लें —
हो लें प्रभावित, किसी हद तक
—थोड़ा अन्दर के अन्दर तक भी ।
मगर उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर ,
के अन्दर तक हुआ नहीं जा सकता ।
पहुँच नहीं सकते हम कैवल्य लोक तक ।
मुक्त हंस आदमी वह —
सारी स्थितियों से मुक्त ….. अस्पर्शित ।
बहुत गहरी अंतर्दृष्टि है कवि की …तभी तो कहते हैं …
" जहाँ ना पहुंचे रवि …वहां पहुंचे कवि …"
हो लें भले ही हम अपने तक–
आन्दोलित हो लें, विलोड़ित हो लें,
काँपे, थर्रा लें, विगलित हो लें —
हो लें प्रभावित, किसी हद तक
—थोड़ा अन्दर के अन्दर तक भी ।
मगर उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर ,
के अन्दर तक हुआ नहीं जा सकता ।
पहुँच नहीं सकते हम कैवल्य लोक तक ।
सत्यं शिवम् सुन्दरम्!
अद्बुत!! जारी रहिये..अगली पोस्ट का इन्तजार!
(अनाहत का देश ।
शून्य प्रदेश ।
इसलिये, इसीलिये
व्यर्थ है सब-कुछ —
सारे नारे हैं व्यर्थ,
छटपटाहट है व्यर्थ,
सारी भागदौड़ व्यर्थ ।
जल की प्रकृति हम बदल नहीं सकते —
क्या कीजियेगा —
अपनी इन आँखों से, कानों से, त्वचा-संवेदना से ?
वहाँ तो कुछ भी नहीं है, बस —
’कुछ भी नहीं ’ है वहाँ ।
मगर उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर ,
के अन्दर तक हुआ नहीं जा सकता ।
पहुँच नहीं सकते हम कैवल्य लोक तक ।
अब क्या कहूं, आज मुझे कुछ कहना नहीं है…!!!
सटीक और प्रवाहपूर्ण.. अगली कड़ी का इंतजार है
हैपी ब्लॉगिंग
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति, आभार सहित शुभकामनायें ।
प्रस्तुत कविता में 'करुना ' की उपस्थिति है |
करुना की प्रकृति में रंजन और पालन दोनों हैं |
करुना का यह लोकोपकारक धर्म है |
यही धर्म इस कविता में भी है …
उत्कृष्ठ… …
असाधारण शक्ति का पद्य
बहुत ही गहरी कविता है।
एक बार पढी है, लेकिन इसे पूरी तरह से समझने के लिए एक बार कम से कम और पढना पडेगा।
आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
निमित्तमात्र हम !
इसलिये, इसीलिये
व्यर्थ है सब-कुछ —
सारे नारे हैं व्यर्थ,
छटपटाहट है व्यर्थ,
सारी भागदौड़ व्यर्थ ।
जल की प्रकृति हम बदल नहीं सकते –
बहुत सुंदर हिंमाशू जी, धन्यवाद
ओह! बहुत पढ़ नहीं पाया इस बीच। कहां गये बुद्ध? चुक गये क्या मोनोलॉग करते?
कैसी है अनुभूति
कैसा है एहसास
मेरे अन्तर मे तेरे
सौरभ की
रजत किरणों का आभास
तभी तोैसी काव्यकृ्ति रची जा सकी है बहुत ही सुन्दर मेरे पास शब्द नहीं हैं इसके समतुल बधाई