बनारस के प्रकाशन पुरुष कृष्णचन्द्र बेरी

बनारस के प्रकाशन-संस्थानों में हिन्दी प्रचारक संस्थान एवं इसके प्रकाशक-निदेशक श्री कृष्णचन्द्र बेरी का एक विशेष महत्व है। महत्व मेरी दृष्टि में इसलिये है कि इस संस्थान ने मेरी पठन-रुचि को तुष्ट करने में बड़ी भूमिका निभायी है। मेरे जैसे सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि के अध्येता और पाठक के लिये पुस्तकों के अतिशय मूल्य के कारण अपनी पुस्तक-रुचि के बलिदान के अलावा कोई चारा नहीं था।

ऐसे समय में जब मेरी अध्येता-वृत्ति अनेकानेक पुस्तकों का पारायण चाहती थी, पुस्तकें खरीद कर पढ़ना असम्भव लगता था। कई प्रकाशकों के सूची-पत्र मंगा लिये थे, केवल कम मूल्य की पुस्तकों की खोज के क्रम में। इसी प्रक्रिया में हिन्दी प्रचारक संस्थान के सूची-पत्र ने आकृष्ट किया। कम मूल्य की पुस्तकें और उपयोगी और मूल्यवान पुस्तकें साफ ही दिख गयीं मुझे। अनेकों किताबें धीरे-धीरे मंगा कर पढ़ लीं और पुस्तक-पठन की प्रक्रिया ने गति पकड़ ली। मैंने कई बार हिन्दी प्रचारक संस्थान की यात्रा की और प्रकाशक तथा प्रकाशन दोनों से जुड़ा।

कृष्णचन्द्र बेरी : हिन्दी प्रकाशन जगत के शलाका-पुरुष

आज इस प्रकाशन-संस्थान के संस्थापक श्री कृष्णचन्द्र बेरी का जन्म-दिवस है। कृष्णचन्द्र बेरी केवल बनारस की पत्रकारिता और प्रकाशन व्यवसाय के शलाका-पुरुष ही नहीं थे, अपितु पूरे भारतीय प्रकाशन जगत में उनका स्थान अन्यतम है। चालीस से भी अधिक पुस्तकों के लेखक तथा विभिन्न गोष्ठियों में पढ़े गये १०० से अधिक प्रबंधों के प्रणेता श्री बेरी ने अपनी बाल्यावस्था से ही संघर्षशीलता और कर्तव्य-भावना से हिन्दी प्रकाशन और पुस्तक-व्यवसाय में अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दे दिया। हिन्दी प्रचारक संस्थान की ’प्रचारक बुक-क्लब’ और ’प्रचारक ग्रंथावली परियोजना’ जैसी योजनाओं का प्रारंभ कर उन्होंने एक नए युग का सूत्रपात किया।

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

प्रकाशकनामा - कृष्णचन्द्र बेरीश्री कृष्णचन्द्र बेरी का जन्म काशी मे १० मार्च १९२० को हुआ। बचपन से ही आप पिता श्री निहालचन्द्र बेरी के पुस्तक व्यवसाय से जुड गये। विद्यासागर कालेज तथा स्काटिश चर्च कालेज, कलकत्ता में एक मेधावी छात्र के रूप में आप सदैव उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे, किंतु सामाजिक और राष्ट्रीय संघर्ष के विघ्न ने स्नातक की शिक्षा पूरी न होने दी। पुस्तक व्यवसाय के सिलसिले में सोलह वर्ष की आयु में आपने मलाया, बर्मा, पूर्वी बंगाल आदि अनेक स्थानों की यात्रा की। १६ वर्ष की उम्र में ही बंगाल छात्र फेडरेशन के बड़ा बाजार शाखा के मंत्री बने। भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम के प्रसंग में नेता जी सुबास चन्द्र बोस के सम्पर्क में आये।

सोलहवें वर्ष में ही हिटलर की आत्मकथा ’मेनकांम्फ’ का पहला हिन्दी अनुवाद मेरा जीवन संग्राम नाम से प्रस्तुत किया। प्रकाशक, लेखक और सम्पादक तीनों ही रूपों में आप प्रसिद्ध हैं। चार बार ’अखिल भारतीय हिन्दी प्रकाशक संघ’ के अध्यक्ष रह चुके बेरी जी को आपके वृहद कार्यों के फलस्वरूप इंडियन इन्स्टिट्यूट आफ पब्लिशिंग की ओर से १९९१ में ’हाल आफ फ़ेम’, फेडरेशन आफ इंडियन पब्लिशर की ओर से ’श्रेष्ठ प्रकाशक पुरस्कार’, नागरी प्रचारणी सभा-काशी द्वारा ’प्रकाशक शिरोमणि’ अलंकरण दिया गया है।

इसके अतिरिक्त भारतीय दलित साहित्य अकादेमी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, अ०भा० भोजपुरी परिषद आदि संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया। आपका विशिष्ट ग्रंथ ’पुस्तक प्रकाशन: संदर्भ और दृष्टि’ और आपकी आत्मकथा ’प्रकाशकनामाहिन्दी प्रकाशन पर प्रकाश डालती महत्वपूर्ण कृतियां हैं।