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November 2009

नाटक, बुद्ध

करुणावतार बुद्ध: चार

सिद्धार्थ महाभिनिष्क्रमण

पिछली प्रविष्टियों करुणावतार बुद्ध- एक, दो, तीन के बाद चौथी कड़ी- तृतीय दृश्य (यशोधरा का शयनकक्ष। रात्रि का प्रवेश काल ही है। राहुल लगभग सो ही गया है। सिर झुकाये राजकुमार सिद्धार्थ समीप में स्थित हैं।) यशोधरा:  प्राण वल्लभ! आज…

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पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -४

पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -१ पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -२ पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -३ से आगे….. और इसीलिये, शायद इसीलिये — थपेड़े खा-खा कर सुरक्षित-खामोश बच जाने को धार की,…

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पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -३

पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -१ पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -२ से आगे…. आदमी है ध्वस्त — उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर के आदमी के हाथ । उस आदमी के…

Literary Classics, Ramyantar

पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ -२

पिछली प्रविष्टि से आगे …. ना ! क़तई नहीं । आदमी कभी जुदा-जुदा नहीं होते । आदमी सब एक जैसे होते हैं – एक ही होते हैं, पूर्ण-सम्पूर्णतः — अन्दर के अन्दर, के अन्दर, के अन्दर तक, बाहर से अन्दर…

Literary Classics, Ramyantar

पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ (पानू खोलिया)-१

अपने नाटक ’करुणावतार बुद्ध’ की अगली कड़ी जानबूझ कर प्रस्तुत नहीं कर रहा । कारण, ब्लॉग-जगत का मौलिक गुण जो किसी भी इतनी दीर्घ प्रविष्टि को निरन्तर पढ़ने का अभ्यस्त नहीं । पहले इस नाटक को एक निश्चित स्थान पर…

नाटक, बुद्ध

करुणावतार बुद्ध: तीन

करुणावतार बुद्ध सारथी:  भूपाल! नगरी तो ऐसी सजी-सँवरी थी, जैसे अमरावती ही वहाँ उतर आयी हो। सुन्दरियाँ नृत्य-गीत में रत थीं। चंदन की सुगंध से गलियाँ महक रहीं थीं। फूलों की वृष्टि हो रही थी। कौन-सा सुख नहीं बरस रहा…

नाटक, बुद्ध

करुणावतार बुद्ध: दो

करुणावतार बुद्ध: (द्वितीय दृश्य ) (सारथी प्रवेश करता है । प्रणाम की मुद्रा में सिर झुकाकर राजा की आज्ञा माँगता है ।) राजा:  सारथी ! मेरे लाडले की नगर दर्शन की अभिलाषा तृप्त हो गयी? सारथी:  हे प्रजावत्सल! आज तक…

नाटक, बुद्ध

करुणावतार बुद्ध: एक (नाट्य)

करुणावतार बुद्ध (प्रथम दृश्य ) (प्रातःकाल की बेला। महल में राजा और रानी चिन्तित मुद्रा में।)   शुद्धोधन:  सौभाग्यवती! कल अरुणोदय की बेला थी। अभी अलसाई आखों से नींद विदा हुई नहीं थी। मैं अपलक निहार रहा था भरी-पूरी देहयष्टि…

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कल की ना-ना तुम्हारी ….

कल की ना-ना तुम्हारी – मन सिहर गया, चित्त अस्थिर आगत के भय की धारणायें, कहीं उल्लास के दिन और रात झर न जायें फिर उलाहना – क्या यह प्रेम प्रहसन ? रही विक्षिप्त अंतः-बाह्य के निरीक्षण में व्यस्त, नहीं…

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मुक्तिबोध की हर कविता एक आईना है

आज गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मदिवस है, एक अप्रतिम सर्जक का जन्मदिवस। याद करने की बहुत-सी जरूरतें हैं इस कवि को। मुक्तिबोध प्रश्नों की धुंध में छिपे उत्तरों की तलाश करते हैं- चोट पर चोट खाकर, आघात पर आघात सहकर।…