पिछली प्रविष्टियों करुणावतार बुद्ध- एक, दो, तीन के बाद चौथी कड़ी-
तृतीय दृश्य
(यशोधरा का शयनकक्ष। रात्रि का प्रवेश काल ही है। राहुल लगभग सो ही गया है। सिर झुकाये राजकुमार सिद्धार्थ समीप में स्थित हैं।)
यशोधरा: प्राण वल्लभ! आज मैं तुम्हारी आँख बनकर भर आँख तुमको देखना चाहती हूँ। उठाओ अपना यह मुख। मुझे तुम्हारे इन बुदबुदाते अधरों का नहीं, छलछलाये नेत्रों का विश्वास है। कभी तो मेरे सामने एक प्राण, एक सुगंध, एक नाम बनकर बैठो! तुम्हारे एकान्त की नेत्र-भाषा, तुम्हारे देह की उष्णता, तुम्हारे कंठ की बाँसुरी, तुम्हारे बाहु-स्पर्श को मैं अपने स्मरण का काव्य बनाना चाहती हूँ ।इस मानवीय सुगंध से बड़ा उत्सव और क्या हो सकता है !
(कंधों पर बाहें रख देती है।)
सिद्धार्थ: (आँखें ऊपर उठाकर अपलक यशोधरा को देखते हैं) सुनो, सुकुमारी! क्या तुम्हारे हाथों से आलिंगित होने का आनन्द अक्षुण्ण है? जब निमिष उड़ने लगते हैं बावरे पखेरु की तरह पंख फैलाये, तो क्या तुम्हारा आलोक दिखा नहीं देता है भीतर बहता हुआ शोक का झरना? हे मृदुलते! तुम्हारा विलास विश्रृंखलित होगा, कान्ति विलुप्त होगी, गंध नष्ट होगी, निर्मूल लतिका की तरह पंखुड़ियाँ झड़ जायेंगी। रात बीत रही है। तुम सो जाओ! मैं भी थक गया हूँ। बातें फिर कभी।
(यशोधरा बिलख कर सिद्धार्थ से लिपट जाती है। धीरे-धीरे जम्हाई लेती हुई सोने की मुद्रा में आ जाती है।)
यशोधरा: इधर-उधर की बातें छोड़ो मेरे प्रिय! कुछ काम की बातें करो।
सिद्धार्थ: काम का काम तमाम करने का संकल्प लो प्रिये! जीवन की सार्थकता को चूमो! एक गीत है जो निरन्तर गूँज रहा है, यह तुच्छ को त्यागने के लिये ही न! सुनो प्रिये!
यशोधरा: नहीं, नहीं सुनना मुझे यह अनर्गल शब्द! आओ हम एक दूसरे की बाँहों में समा जाँय। मेरी बाँहों को सहारा दो प्राणनाथ! हम सुख की नींद सोयें। लाडला सो रहा है। शैय्या रोती है। रात ढली जा रही है। इस व्यथा-कथा को स्नेह वरुणा में डुबो दो नाथ!
(ढुलक जाती है ।धीरे-धीरे नींद उसे घेर लेती है। कक्ष में सन्नाटे का स्वर गूँजने लगता है। सब सो गये हैं, पर सिद्धार्थ अभी भी जगे हैं। )
सिद्धार्थ: प्रिया और पुत्र तो सो गये किन्तु समीर का स्वर अभी भीं जगा है। क्या सुन रहा हूँ मैं?
(सिद्धार्थ चौंक कर उठ बैठते हैं। फिर कह उठते हैं- )
हे स्वर! तूँ बड़ा सुन्दर है, जीवनदायी है। तूँ अंधकार को अलोक में, तमस को सत्व में, जड़ को चेतन में परिणत कर देता है। स्वर! मैं अपने व्यग्र हृदय के साथ तेरे पास आया हूँ। मैं अपनी सुख और शान्ति से ऊब गया हूँ। मेरी आत्मा नूतन आनन्द के लिये तड़प रही है। तुम ऐसी माधुरी दो कि मैं विस्मृति त्याग जागृति के जल में निमग्न हो जाऊँ। मेरे जीवन की उत्तेजित भावनाओं और उद्वेलित तरंगों को इस तरह व्यवस्थित करो कि मैं विश्व के रहस्यमय संगीत का एक अंग बन जाऊँ। ऐसा राग भरो कि मेरा हृदय विभोर हो उठे और मैं एक नयी मुस्कान के साथ उस आदर्श के पथ पर चल दूँ, जिसने मेरे अन्तस्तल में क्रान्ति कर दी है। मुझे अन्तर्जगत में पैठने का साहस दो। सत्य, शांति और आनन्द वाह्यलोक की वस्तुएं नहीं, यह समझ गया हूँ मैं। इस परिवर्तनशील वाह्यलोक में नित्य सत्य, नित्य आनन्द, नित्य शांति मृगजल की भाँति ही तो हैं। अब मैं सीमा के बंधन में नहीं रुकूँगा। निरंतर गति के लिए निरंतर आत्मदान की जरूरत है। अब अज्ञात के चरणों में स्वयं को उलीच कर ही पूर्ण बनूँगा।
(मन में संकल्प करते हैं। मुट्ठियाँ बँध जाती हैं।)
सोओ मेरे लाल! सोती रहे यशोधरा! अब मैं चलूँ। जगाने फिर कभी आ जाऊंगा।
(धीरे से द्वार खोल बाहर आ जाते हैं। एक अदृश्य स्थान की ओर घिसटते हुए-से प्रवृत्त होते हैं- सब कुछ अज्ञात।)
(ब्रह्ममूहूर्त के पूर्व ही यशोधरा के नेत्र खुलते हैं। चकित हो चारों ओर ढूँढ़ती है।
सिद्धार्थ नहीं दिखते। आशंका सही हो जाती है। स्वामी छोड़कर चले गये हैं।)
सुंदर प्रस्तुति!लेकिन ऐसी प्रस्तुतियों को एक साथ संपूर्ण पढ़ने में आनंद मिलता है।
बहुत सुन्दर रोचक वर्णन शुभकामनायें
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अद्भुत ….हमेशा की तरह …
आपकी प्रविष्टियों पर टिपण्णी करना मेरे लिए हमेशा ही बहुत मुश्किल होता है …शब्दों का अजब रहस्यमय माया जाल बुन देते हैं …
अब मैं इसे अपना अल्प ज्ञान मान लूं या आपकी विलक्षण प्रतिभा …!!
हिमांशु बेहद जंचती है मुझे आपकी यह नाट्य-मालिका..! शब्द क्या आकर्षक और जीवंत वातावरण रचाते हैं…और इन सबके भीतर में से आपका सन्देश भी तिरता रहता है. एक समय मै सोचता था कि आजकल भाषा में नाट्य रचनाएं कम से कम हो रही हैं..आपका यह सुन्दरतम प्रयास बेहद ही मनोहारी और गंभीर अर्थवेत्ता लिए हुए है…!
बढ़िया प्रस्तुति और प्रस्तुतीकरण भी !!!
लीजिये आज हम भी स्वीकार कर लेते हैं कि आपके द्वारे आकर शब्दों का भण्डार सिकुड़ा सा लगने लगता है ……ना जाने पर ऐसा है!!!
बहुत सुंदर लेख, आप की भाषा के आप की शेली बहुत हट कर है, धन्यवाद
मैंने भी तो अल्लसुबह टिप्पणी की थी -गयी कहाँ ?
अब जो की थी वह तो याद नहीं -शायद कुछ ऐसी थी की हम सभी को जीवन का अनगन सत्य पता है मगर फिर भी आत्मविस्मृत से रहते हैं !
आपने गजब का चित्रण किया है .. सचमुच क्षणिक ही है सांसारिक सुख और मोह .. पर इसका त्याग कर पाना आसान नहीं .. इसी के लिए दुनिया में कितनी मार काट मची होती है .. वास्तविक सुख का अनुभव कहां कर पाते हैं कोई .. इसलिए तो वे बुद्ध बन जाते हैं !!
बंधुवर !
आपके यह प्रसंग मुझे निर्विवाद रूप से प्रिय हैं |
सपाटबयानी का सौंदर्य आपके यहाँ गजब का है …
जैसे , '' सोती रहे यशोधरा '' के पास ही '' जगाने फिर
कभी आ जाऊंगा '' की वाक्य – सृष्टि | ऐसे और भी सुन्दर प्रसंग है | जहाँ प्रसंग भी वाह …और शब्द- चित्रण भी वाह …
आपका लेखन पसंद करता हूँ इसलिए एक बात का जिक्र जरूर करूँगा , जो मुझे अखरी |
मित्र !
भाव – स्थितियों के अनुसार शब्द – चयन होना चाहिए …
एक उदहारण दे कर अपनी बात कहूँगा …आपके ही इस प्रसंग से …
आपके यहाँ जिन बुद्ध की संकल्प से '' मुट्ठियाँ बँध जाती हैं '' उनकी स्थिति आगे ऐसी
क्यों है , '' एक अदृश्य स्थान की ओर घिसटते हुए-से प्रवृत्त होते हैं – सब कुछ अज्ञात '' |
और तो और ; यह 'घिसटते हुए-से ' बड़ा अजीब सा लग रहा है |
अगर मैं गलत होऊंगा तो माफ़ करना …….
बहुत सुन्दर हिमांशु! जैसे राम का चरित्र स्वयम ही काव्य है, वैसे बुद्ध का यह प्रकरण भी बहुत सहज है वर्णन के लिये। रचना बरबस प्रस्फुटित हो उठती है लेखनी से।
हाँ, लिखने की एकाग्रता जरूर चाहिये जो आप जैसे कवि मना ही दिखाते हैं। हम जैसे तो वैतरणी नाला ही झांकते रहते हैं!
अमरेन्द्र जी की टिप्पणी से आगे चलता हूँ। सिद्धार्थ की जो छवि हमारे मन में आज है वह 'बुद्ध' तथागत की है लेकिन गृहत्याग करते सिद्धार्थ अभी असिद्ध अर्थ हैं। इसलिए दुविधा है। मुठ्ठियाँ बँधती हैं, कहाँ? अंत:पुर में। भार्या रूप उस समय की अनिन्द्य सुन्दरी सामने सोई हुई है, शिशु साथ में है और अभी त्याग नहीं हुआ है। विलोड़न के बाद त्याग का निश्चय है। यहाँ निर्णय लेते सिद्धार्थ कहीं कम्फर्टेबल है – वर्षों से यही तो दुनिया रही है उसकी। एक बार ही तो वह चहारदीवारियों के बाहर निकला था और वह इतना अंकम्फर्टेबल(बहुत अपर्याप्त शब्द है लेकिन मैं इससे कम्फर्टेबल हूँ) हुआ कि सर्व त्याग सोच बैठा …
लेकिन त्याग के बाद द्वार खोलते अंत:पुर नहीं सामने वही अनंत संसार है, उसके दु:ख हैं, अनिश्चितता है और अपरिचय है। सुन्दरी भार्या और शिशु का मोह भी है – सिद्धार्थ को मानव मान कर चलें । इसलिए घिसटते हुए-से है। हम अवतारी बोधिसत्त्व की भावभूमि में नहीं विशुद्ध मानवीय भावभूमि में विचरें तो समझ पाएँ। … दुविधा और क्ंट्राडिक्सन न होंगे तो सिद्धार्थ गृह त्याग करते ही बुद्ध नहीं हो जाएगा? ..
कंट्राडिक्सन और हैं – यशोधरा का त्याग स्थूल रूप से रागात्मिका वृत्ति का त्याग है लेकिन "ऐसा राग भरो कि मेरा हृदय विभोर हो उठे" – ये कौन से राग की माँग है ? राग का त्याग और फिर राग की माँग ! यह निज का इस स्तर तक प्रसार है कि समूची सृष्टि ही अपनी हो जाय लेकिन उसकी सिद्धि के लिए यशोधरा के राग और उसका त्याग आवश्यक है। बेचारी यशोधराएँ, उर्मिलाएँ झेलती रही हैं इस उदात्त सर्वसमाही राग के भार को ! पुरुष सारी अवतारी उदात्तताओं के बावजूद कितना दीन सा लगने लगता है ! …
भैया रचे चलो आनन्द प्राप्त हो रहे हैं। जारी
पिछले भाग से जारी
एक शिकायत अवश्य है। नाटक को भरत मुनि ने शायद काव्य कहा है लेकिन आधुनिक समय में नाटक स्वतंत्र है। उसके अपने तेवर कलेवर हैं। अपनी सिद्धि है। इतने बड़े ऐतिहासिक त्याग में और नाटकीय भव्यता होनी चाहिए थी। यशोधरा और सिद्धार्थ को और तपना था कलम की भठ्ठी में । इतना बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में लिए हो तो गालबजाऊ और कम्फर्ट-ग्रस्त बकवादियों की बातें सुननी ही पड़ेंगी। सोचने की बात जे है कि यह सब हर जगह नहीं कहा जाता। हम आप को कसते रहेंगे। मदद भले एक कौड़ी की न करें ! समाप्त
बहुत सरस रचना.
रामराम.
SUNDAR …. PRABHAAVI, ADHBUSH VARNAN ……
इस शमा को जलाए रखें।
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भीड़ है कयामत की, फिरभी हम अकेले हैं।
इस चर्चित पेन्टिंग को तो पहचानते ही होंगे?
sundar prasang…
मेरे जीवन की उत्तेजित भावनाओं और उद्वेलित तरंगों को इस तरह व्यवस्थित करो कि मैं विश्व के रहस्यमय संगीत का एक अंग बन जाऊँ । ऐसा राग भरो कि मेरा हृदय विभोर हो उठे…….
गजब का चित्रण
बहुत सुन्दर वर्णन
शुभ कामनाएं
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क्रियेटिव मंच
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
Email- sanjay.kumar940@gmail.com
सुन्दर प्रस्तुति!रोचक टिप्पणियां!
यशोधरा बिलख कर सिद्धार्थ से लिपट जाती है । धीरे-धीरे जम्हाई लेती हुई सोने की मुद्रा में आ जाती है ।
वैसे सच कहूँ तो सबसे अधिक दुःख यशोधरा के लिए होता है, जैसे उर्मिला के लिए हुआ था, क्यूंकि नारी प्रेम है, और उसे प्रेम किया जाना चाहिए.आश्चर्य होता है कि यशोधरा ने अपनी काम-ज्वर को कैसे शांत किया होगा? पर फ़िर भी मैं बुद्ध के किसी भी कदम की आलोचना नहीं कर सकता, बस यूँ की ये सब उनके विवाह से पूर्व क्यूँ नहीं हो गया?
एक टिप्पणी बड़ी सी लगी सो पढ़ी…
…गिरिजेश राव की टिप्पणी !!
हल्का नया आयाम देती है नाट्य श्रृंखला को !!
हे स्वर ! तूँ बड़ा सुन्दर है, जीवनदायी है । तूँ अंधकार को अलोक में, तमस को सत्व में, जड़ को चेतन में परिणत कर देता है । स्वर ! मैं अपने व्यग्र हृदय के साथ तेरे पास आया हूँ । मैं अपनी सुख और शान्ति से ऊब गया हूँ । मेरी आत्मा नूतन आनन्द के लिये तड़प रही है । तुम ऐसी माधुरी दो कि मैं विस्मृति त्याग जागृति के जल में निमग्न हो जाऊँ । मेरे जीवन की उत्तेजित भावनाओं और उद्वेलित तरंगों को इस तरह व्यवस्थित करो कि मैं विश्व के रहस्यमय संगीत का एक अंग बन जाऊँ । ऐसा राग भरो कि मेरा हृदय विभोर हो उठे और मैं एक नयी मुस्कान के साथ उस आदर्श के पथ पर चल दूँ, जिसने मेरे अन्तस्तल में क्रान्ति कर दी है । मुझे अन्तर्जगत में पैठने का साहस दो । सत्य, शांति और आनन्द वाह्यलोक की वस्तुएं नहीं, यह समझ गया हूँ मैं । इस परिवर्तनशील वाह्यलोक में नित्य सत्य, नित्य आनन्द, नित्य शांति मृगजल की भाँति ही तो हैं । अब मैं सीमा के बंधन में नहीं रुकूँगा । निरंतर गति के लिए निरंतर आत्मदान की जरूरत है । अब अज्ञात के चरणों में स्वयं को उलीच कर ही पूर्ण बनूँगा ।
भगवान या परम सत्य कि प्राप्ति कैसे होगी? एक माँ अपने बेटे को मेले में निश्चिंत होके छोड़ देती है, पर जब वो रोता है तो फ़िर अपनी गोद मैं ले लेती है. यही करुण क्रंदन करना चाहता हूँ…
जगाने फिर कभी आ जाऊंगा ।
फ़िर यशोधरा के लिए दुःख (चूँकि बुद्ध नहीं हैं न हम तो दुःख होता है) पता नहीं वो यशोधरा को जगाने आये या नहीं. पहले कभी सरसरी तौर पर पढ़ी थी बुद्ध-जीवनी. शायद आप अशेष न छोड़ें इस बात को अपने धारावाहिक में.
I apologise, but, in my opinion, you are not right. I am assured. I can prove it.