कुछ चरित्र हैं जो बार-बार दस्तक देते हैं, हर वक्त सजग खड़े होते हैं मानवता की चेतना का संस्कार करने हेतु। पुराने पन्नों में अनेकों बार अनेकों तरह से उद्धृत होकर पुनः-पुनः नवीन ढंग से लिखे जाने को प्रेरित करते हैं। इनकी अमित आभा धरती को आलोकित करती है, और ज्ञान का प्रदीप उसी से सम्पन्न होकर युगों-युगों तक मानवता का कल्याण करता रहता है। करुणावतार बुद्ध नामक यह प्रविष्टियाँ ऐसे ही महानतम चरित्रों का पुनः स्मरण हैं। पहली और दूसरी कड़ी के बाद प्रस्तुत है तीसरी कड़ी-
करुणावतार बुद्ध
सारथी: भूपाल! नगरी तो ऐसी सजी-सँवरी थी, जैसे अमरावती ही वहाँ उतर आयी हो। सुन्दरियाँ नृत्य-गीत में रत थीं। चंदन की सुगंध से गलियाँ महक रहीं थीं। फूलों की वृष्टि हो रही थी। कौन-सा सुख नहीं बरस रहा था! कुमार भिखारी को देख कर पूछने लगे- “क्या यह अकेला इस धरती पर घूमने वाला प्राणी है?”
मैंने कहा- “वृद्ध सबको होना है । नियति का यह खेल है । श्रीमंत भी तत्काल श्रीहीन हो जाते हैं।” उनके यह पूछने पर कि क्या मैं, मेरी यशोधरा भी जरा-जीर्ण हो सकती हैं, मैंने हूँ-हूँ कहते हुए बात टालनी चाही, पर वह नहीं माने तो हाँ-हाँ कहना पड़ा। क्या बताऊँ कि वे कितने व्यथित हो गये? बोले-“क्या अर्थ है ऐसे जीवन का?”
महाराज! रथ अभी कुछ ही दूर चला था कि एक कोने में पड़ा हुआ एक गलित कुष्ठ रोगी बिलख रहा था। उसकी गतिविधि की टोह में डूबे सिद्धार्थ स्वयं को गलित कुष्ठ रोगी मान बैठे। “मैं, मेरी यशोधरा भी यह दिन देखेंगे?”– यह पूछते-पूछते उनका गला सूखा जा रहा था। मैंने समझाने का प्रयास किया-“रोगव्याधि शरीर का धर्म है, आप चिन्ता न करें”, किन्तु विश्वव्याधि से वे इतने व्यथित हो गये कि रथ में ही निढाल होकर लेट गये। समझा बुझा कर रथ तीव्र-गति से लौटाने को ही था कि महाराज! एक और घटना घट गयी।
राजा: क्या? क्या? क्या घटना घटी सारथी?
सारथी: हे प्रजावत्सल! रथ के वेग में अनजाने ही एक बोझिल गतिमयता समा गयी थी। मुझे लग रहा था दुनिया मानो छाया-छाया, टुकड़े-टुकड़े में बँटी किसी दर्पण में प्रतिबिम्बित माया हो। लग रहा था मार्ग में कोई कापालिक अशुभ मंत्र पढ़ रहा हो। आत्मा तड़प-तड़प कर जैसे निचुड़े शरीर से आगे बढ़ने को आतुर थी। एक मर्मांतक चीख वायु को बींध रही थी। आकाश से एक स्वर लहरी सुनायी पड़ रही थी जैसे, जिसे सब सुन रहे थे- वनस्पतियाँ, पखेरू और राजकुमार भी। आपके पुत्र के तो जैसे सौ-सौ कान हो गये हों। वह पागल-से हो गये थे। इधर-उधर फटी-फटी नजरें दौड़ाते, लम्बी गर्म श्वांसे छोड़ रहे थे। अचानक ही चार कंधों पर रखा हुआ एक शव श्मशान भूमि की ओर जा रहा था। एक पिता अपने नवयुवक पुत्र के विदा हो जाने पर छाती पीट-पीट कर रो रहा था। ’राम-नाम सत्य है’ की कर्णभेदी आवाज कलेजा विदीर्ण कर रही थी।
सिद्धार्थ ने पूछा- “यह क्या ?”
मैंने जीवन के ध्रुव सत्य मरण की ओर संकेत किया। उन्होंने बलिष्ठ निर्जीव काया को क्षण भर में मुट्ठीभर राख में बदलते देखा। उनके प्राण हाहाकार कर उठे। पूछा- “इस अवस्था में कौन जाते हैं ?“
मैंने कहा- “सब। आप, हम, देवि यशोधरा, नृप, रानी- सब के सब जन्मे हुए प्राणी कालचक्र के कलेवा बन कर रहते हैं। इस कालचक्र को कोई टाल नहीं सकता।”
हे अन्न दाता! राजकुमार ने कहा- “सारथी! लौट चलो! जान गया जीवन में मनुष्य को सुखों से कहाँ मिलना? दुख ही मिलते हैं। अब नहीं रुकूँगा। विश्व-वेदना को निर्मूल करके ही मानूँगा। मेरी आँखों की कोर में जब आँसू खड़ा रहेगा, तभी जिन्दगी दिल खोल कर बातें करेगी। उठो, चलो सिद्धार्थ! दुख तुम्हारी खोज में तुम्हारे द्वार पर आया है। देशान्तर, कालान्तर, देहान्तर, रूपान्तर की अक्षर यात्रा की अब बेला आ पहुँची है। सारथी, रथ फेरो! देखो, सूर्यमंडल से सूर्यग्रहण ज्यादा अद्भुत है।”
इस तरह वे न जाने कहाँ खो गये। रथ आया, रथ के साथ उनका शरीर भी लौटा, किन्तु मन कहीं छूट गया। मैंने प्रकृतस्थ करने का प्रयास किया, पर वो बोलते रहे, बड़बड़ाते रहे-
“अकेलापन है राह। क्षयनाश, व्यवधान, परिवर्तन, मृत्यु, कुटिलता, माया- अब तुमसे अंतिम विदा। सारथी मेरे! सुख का क्या पीछा करना? मुझसे पूछना मत, दुख का रंग कैसा है? न जाने कितने मन्वंतरों से सो रहे हैं मेरी हड्ड़ियों में सारे क्षोभ, सारे विषाद।”
ऐसा ही न जाने क्या-क्या उच्चरित करते रहे। फिर सो गये। महाराज! उन पर विशेष निगरानी रखी जाय!
राजा: (दीर्घ श्वांस लेते हुए) महारानी! कुछ अघटित घटने के संकेत मिल रहे हैं। विचित्र स्वप्न कई दिनों से देख रहा हूँ। देखिये, आगे विधाता क्या-क्या दिखाता है?
रानी: प्राणनाथ! मेरा पुत्र मुझे बार-बार न जाने क्यों ज्योतिर्मय कमल-सा दिखता है। मैं तो यह सुनकर डर गयी थी, जब वह एक रात मेरी गोद में लेटा हुआ बड़बड़ा रहा था-
“अपने प्राणों पर मैंने यह देह जीवनधर्म समझकर धारण की है। मेरी व्यक्तिसत्ता विश्वसत्ता है।”
राजन! पुत्र को सांसारिकता के मधुकोषपीठ में उलझाये रखना जरूरी हो गया है। हम हारने के पहले ही सचेत हों, यही अच्छा है।
राजा: हाँ रानी! कल किसी युक्ति से सिद्धार्थ को संसार-राग में डुबाने का पूरा प्रयास करुँगा।
क्रमशः-
बहुत सुंदर लिखा है आपने ! आपके पोस्ट के दौरान बहुत ही अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई! आपकी लेखनी को सलाम!
इस ज्ञानवर्धक आलेख और बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
हम ने यह सब तो स्कुल मै पढा है, लेकिन आप के लिखने का ढंग बहुत अच्छा लगे हमे बांधे रखा आप के लेख ने. धन्यवाद
अभी कुछ दिन पहले हीं "लिटिल बुद्धा" नामक की एक इंग्लिश फ़िल्म देखी थी । बुद्ध के जीवन पर आधारित यह फ़िल्म बहुत ही अच्छी बन पड़ी है । बुद्ध के जीवन चरित्र पर आधारित आपकी यह नाट्य शैली में लिखी गयी रचना बहुत हीं पसंद । पिछली दो कड़ियां नहीं पढ़ पाया हूँ वह भी जल्द ही पढ़ लूँगा ।
बंद कीजिये यह संघातक रूपक -आख्यान हिमांशु ! इससे घोर वितृष्णा की अंतर्ज्वालायें धधक उठी हैं !
बुद्धं शरणं गच्छामि।
——–
क्या स्टारवार शुरू होने वाली है?
परी कथा जैसा रोमांचक इंटरनेट का सफर।
सुन्दर मगर क्षणभंगुर जीवन के संभावित दुःख की आशंका के भय से पलायन …क्या सिद्धार्थ के लिए यह उचित था …??
बौद्ध बनने के लिए जीवन के प्रति यह नैराश्य भाव ..!!
bबहुत सुन्दर चल रहा है ये नाटक । लिखने का ढंग रोचक है जोपाठक को अन्त तक बान्धे रखता है धन्यवाद और शुभकामनायें
सार्थक शब्दों के साथ अच्छी रचना। बधाई।
हिमांशु जी !
रोचक लगा यह …
मृत्यु पर चिंतन करके हम
मृत्यु-भय से बचने लगते है , आपके बुद्ध ने
तो यह भी कहा है — '' अब नहीं रुकूँगा । विश्व-वेदना
को निर्मूल करके ही मानूँगा | ''
कुंवर नारायण जी रचना 'आत्मजयी ' की याद आ गयी |
अब आगे एक सज्जन की बात में ''मत '' जोड़ कर अपनी
बात ख़त्म कर दूँगा —
—————- मत 'बंद कीजिये यह संघातक रूपक -आख्यान हिमांशु !'
एक विधा के तौर पर यह नाट्यलेखन मुझे जंच रहा है..विषय भी अप्रासंगिक नहीं ही कहा जा सकता….श्रीमान अरविन्द जी की आपत्तियां समझ नहीं सका हूँ..कहीं कोई चूक हो रही है समझने में मुझे..
मैं भी वाणी जी की बातों का अनुमोदन करती हूँ…सिद्धार्थ का यह पलायन मेरे गले से भी नहीं उतरता….क्या उनका ऐसा व्यवहार अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल के प्रति न्यायपूर्ण था..?
परन्तु आपका आलेख बहुत ही ज्ञानवर्धक लगा…
बधाई स्वीकार करें..!!
क्षमा करें 'आलेख' नहीं 'नाट्य रूप' भाव पूर्ण है…..
मुझे तो जातक पढने का आनन्द आया ।
बुद्ध की करूणा हम सबको प्राप्त हो।
——————
सिर पर मंडराता अंतरिक्ष युद्ध का खतरा।
परी कथाओं जैसा है इंटरनेट का यह सफर।
क्या जी; इतना सशक्त चरित्र एक वर्ग विशेष ने झटक कर वर्तमान में कचरा कर दिया!
सच है-जीवन में लोग भूल जातें है
जीवन के आदि-अन्त के बारे में
जीवन के बाद के गंतव्य के बारे में
जीवन में उचित-अनुचित के बारे में
क्या है ‘बुद्ध’ या ‘अवतार’ होना
हम सभी अनन्त परमात्म-‘सत-चित-आनन्द’ के बीज हैं
लेकिन सोये हुये
जब कोई जाग जाता है तो वह बुद्ध होता है
जब पूरी सृष्टि की प्रसव वेदना को स्वयं सहता है कोई
तो वह बुद्ध होता है
सूर्यमंडल से सूर्यग्रहण ज्यादा अद्भुत है !!
क्या ही बेहतरीन बात है, सभी बातो की तरह. मैं निशब्द हुआ जाता हूँ…
हिमांशु बही माफ़ करना पर अब टिप्पणी नहीं होगी ! पढ़ लूं दस भाग !!
शायद तब भी न हो…
पर फ़िर कहता हूँ आपको अलग हटा के पढ़ रहा हूँ ये पोस्ट. यूँ की सुबह सुबह कोई खज़ाना मिल गया हो, डर भी लगता है, ख़ुशी भी होती है की अभी ७ भाग बाकी हैं, क्या कहा था आपने?
…हाँ ! नैराश्यपूर्ण आशा.
और हाँ इस तरह की पोस्ट पढने के बाद आप 'कमेन्ट' आदि के बारे मैं नहीं सोचते, बस बहते हैं,
ढेरों बधाई अभी से कह देता हूँ…
अब हर पोस्ट में पढ़ लिया से ज़्यादा शायद ही कुछ लिखूं.