सौन्दर्य लहरी संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है य...
सौन्दर्य लहरी संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह। अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें। सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता। मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है। उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा। जो सहेजूँगा, यहाँ लाकर रख दूँगा। साभार। पहली के बाद आज दूसरी कड़ी-
त्वमेका नैवासि प्रकटित वराभीत्यभिनया,
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांछासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥4॥
प्रकट नहीं करती हो देवी, दिया हुआ वरदान अभय
अन्य देवता पर हाथों से देने का करते अभिनय ।
भय-त्राता हैं, फल देते हैं वांछाधिक, जो हुआ शरण
शरणप्रदायिनि! परम निपुण हैं वरदायी तव सुहृद चरण॥4॥
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हरिस्त्वामाराध्य प्रणत जन सौभाग्यजननीम्
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्,
स्मरोऽपि त्वां नत्वा रति नयन लेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यंतः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥5॥
तेरा ही आराधन करके, शरणागत सौभाग्य प्रदायिनी !
पुरा काल में हरि ने हर को क्षुब्ध किया धर रूप मोहिनी,
रति नयनास्वादित अनंग भी तेरे ही चरणों के बल से
मुनियों के मन को मथने में भी समर्थ है मोह-प्रबल से॥5॥
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धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पंचविशिखाः
वसंत सामंतो मलयमरदायोधन रथः,
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपिकृपां
अपांगात्ते लब्ध्वा जगदिदमनंगो विजयते ॥6॥
यद्यपि उसका कुसुम-धनुष है, धनु-गुण भी है चंचरीक-मय
पंच सुमन-शर, मलयानिल-रथ, औ’ वसंत के साथ अभय,
मार विजित करता समष्टि को, तो वह तेरे ही सम्बल से
हिमगिरि-पुत्री! तव नेत्र-कोर से निःसृत करुणा के बल से!॥6॥
अमरेन्द्र भाई ने पिछली पोस्ट पर टिप्पणी की थी -"आपसे उम्मीद रखने के अलावा और क्या कर सकता हूँ.."। बाद में दूरभाष की बातचीत में इन छन्दों को छन्दबद्ध रूप में लिखने की इच्छा की ! हमारे लड़कपन को समझ लिया था इन्होंने, मतलब थोड़ी प्रशंसा के बाद कुछ भी कराया जा सकता है अबोध से ! और हम भी बावले ! छिछली नौका ले उतर ही पड़े थे - सो यह प्रयास आपके सामने है । कौन-सा छन्द है, यह तो छन्दबद्ध लोग ही बतायेंगे । प्रयास सुन्दर लगा तो अंगुलि निर्देश करियेगा, किस राह चलूँ ! पहली और यह दूसरी दोनों प्रविष्टियाँ आपके सम्मुख हैं -
त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणःत्वमेका नैवासि प्रकटित वराभीत्यभिनया,
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांछासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ ॥4॥
प्रकट नहीं करती हो देवी, दिया हुआ वरदान अभय
अन्य देवता पर हाथों से देने का करते अभिनय ।
भय-त्राता हैं, फल देते हैं वांछाधिक, जो हुआ शरण
शरणप्रदायिनि! परम निपुण हैं वरदायी तव सुहृद चरण॥4॥
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हरिस्त्वामाराध्य प्रणत जन सौभाग्यजननीम्
पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्,
स्मरोऽपि त्वां नत्वा रति नयन लेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यंतः प्रभवति हि मोहाय महताम् ॥5॥
तेरा ही आराधन करके, शरणागत सौभाग्य प्रदायिनी !
पुरा काल में हरि ने हर को क्षुब्ध किया धर रूप मोहिनी,
रति नयनास्वादित अनंग भी तेरे ही चरणों के बल से
मुनियों के मन को मथने में भी समर्थ है मोह-प्रबल से॥5॥
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धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पंचविशिखाः
वसंत सामंतो मलयमरदायोधन रथः,
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपिकृपां
अपांगात्ते लब्ध्वा जगदिदमनंगो विजयते ॥6॥
यद्यपि उसका कुसुम-धनुष है, धनु-गुण भी है चंचरीक-मय
पंच सुमन-शर, मलयानिल-रथ, औ’ वसंत के साथ अभय,
मार विजित करता समष्टि को, तो वह तेरे ही सम्बल से
हिमगिरि-पुत्री! तव नेत्र-कोर से निःसृत करुणा के बल से!॥6॥
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