साढ़े छः बजे हैं अभी। नींद खुल गयी है पूरी तरह। पास की बन्द खिड़की की दरारों से गुजरी हवा सिहरा रही है मुझे। ओढ़ना-बिछौना छोड़ चादर ले बाहर निकलता हूँ। देखता हूँ आकाश किसी बालिका के स्मित मधुर हास की मीठी किरणों से उजास पा गया है। सोचता हूँ, कौन मुस्करा रहा है अभी! शशक-सा ठिठकता हूँ, निरखता हूँ, फिर चलने लगता हूँ।
मन में एक उपस्थिति की प्रतीति निरन्तर कर रहा हूँ। ठिठक-ठिठक-सा जा रहा हूँ- कौन खड़ा है सामने? जल की सरसिज कलिका-सी अँगड़ाई लेती कौन खड़ी है वहाँ! मन के सरोवर की मरालिनी-सी कौन है वहाँ! मैं उत्कंठित हूँ, चेतना अ-निरुद्ध सोच रही है। पूछना चाह रहा हूँ, ’धुंध के भीतर छिपी तुम कौन हो?’ कौन हो तुम आँसुओं की भाषा की तरह मूक!
आगे बढ़ता हूँ, निपट रही है धुंध। थोड़ी उजास दिखती है-बाहर भी, भीतर भी। चिन्तन चल रहा है, कौन है वह! क्या उषा के अरुणिम गवाक्ष से झाँकता सविता है या आलिंगन में समा जाने की व्याकुलता सँजोती बाहों की तन्मय कविता है वह! कौन है वह? नेत्रों का आभास पा रहा हूँ- मधु प्याले ढरक रहे हैं। कौन खड़ा है वहाँ? कल्पना के अनगिन रूप बन-सज रहे हैं। सजग देख रहा हूँ, नवल नील परिधान युक्त आकृति। मुग्ध हो रहा हूँ। निहार रहा हूँ वह अकृत्रिम रूप।
आँकने के बाहर है यह सौन्दर्य…
अभी प्रारम्भ ही हुए आषाढ़ की सजल घटा-सी श्यामल लटें बिखराये, फेन की तरह उजले दाँतों में चंचल छिटक रहा अंचल-कोर दबाये, अपने चपल हाथों से बार-बार खिसकते अरुण-दुशाले को सम्हालते कोई खड़ा है वहाँ! अरुणाभ अधर और चन्द्र की विमल विभा से भी छाला पड़ जाने वाली कोमल तन वाली वह कौन खड़ी है वहाँ! कैसे बखानूँ वह अप्रतिम रूप? झुकी हुई आँखें हैं, उज्ज्वल तन, जैसे पूर्णिमा की रात ही मुदिता होकर सामने आ खड़ी है। आँकने के बाहर है यह सौन्दर्य।
मन चहक-चषक में भर लेना चाहता है वह मधु-रूप। चितवन आकर ठहर गयी है भीतर। फिर-फिर निहारता हूँ। कहीं यह मेरे मन के कुसुमित कानन की तरुणी अभिलाषा तो नहीं। कहीं यह मेरी छुपी हुई प्यास, मुझ व्यथित-तृषित चातक की स्वाति-सलिल पिपासा तो नहीं। क्यों बावला हो रहा हूँ मैं! मैं भ्रमित मतवाला वसंत क्यों हो रहा हूँ? कौन है, कौन है वहाँ?
दुर्निवार है तुम्हारा सम्मोहन शिशिर बाला
मैं अभागा, दुबका रह जाता था निद्रा-गलियारों में। आज बाहर आया हूँ, तो दिख रहा है यह अनुपम सौन्दर्य। तुम जो भी हो खड़ी, यूँ ही बाँटती रहो अपनी मदिर चितवन। चाह नहीं कि मुझे अंक भरो, सुमन माल पहनाओ, जलद-दामिनी-सी गले लगो। बस ऐसे ही खड़ी रहो अपने पूरेपन के साथ, सम्पूर्ण सौन्दर्य-विस्तार समेटे। मन संतुष्ट है। प्रश्न भी कहीं पिछलग्गू हो गया है तुम्हारे सौन्दर्य-सम्मुख। कौन हो तुम?
यूँ ही खड़ा रह गया हूँ देर तक। नहीं जानता कौन है वहाँ, पर लगता है शिशिर ही रूप धर आ खड़ी है। दुर्निवार है तुम्हारा सम्मोहन शिशिर बाला!
बहुत खुब भाई, लाजवाब लिखते हैं आप , इस सुन्दर रचना के लिए आभार ।
शब्दों के मोहक जाल में लिपटा सुबह की शिशिर बाला .अपने में समोती रूमानी और खो जाने वाले पथ पर ले जाती है आपकी यह शब्दावली बहुत सुन्दर
शिशिर बाला से यह मुलाक़ात स्मरणीय रहेगी !
बेहतरीन .
मनमोहक शैली में शिशिर-बाला का चित्रण मुग्धकारी है.
बहुत खुब कवि के मन मै एक शिशिर बाला जरुर नयी कविता जन्म ले गी, बहुत सुंदर रचना
बहुत खूब.
कामायनी में जयशंकर प्रसंद ने मानवीय भावनाओं को इंसानी रूप देते हुए उनकी विशेषताओं का वर्णन किया है..उनकी ही राह पर शिशिर ऋतू का ऐसा खूब वर्णन..जैसे शिशिर सचमुच ही अनिंद्य सुंदरी बन सामने उपस्थित रही हो …
धुंध के भीतर छुपी वह कौन जिसके नेत्रों का आभास कवि को व्यग्र बेचैन कर जाता है ..मन में उपजा संशय कि कही मन की कोई छिपी अभिलाषा ही तो आन कड़ी ना हुई ..? और फिर चाह का भी मिट जाना ..बस सिर्फ उस रूप को निहारता मन संतुष्ट हुआ..प्रकृति की इन अठखेलियों का इतना खूब वर्णन कि पाठक भी शिशिर बला को सम्मुख -सा पाकर इस रुत को नए अंदाज़ से देखने को विवश …
बहुत बढ़िया ….!!
कड़ी …" खड़ी "
अब ऐसा है की वाणी जी की टिपण्णी को मेरी मानी जाए…वो दूसरा लिख लेगी…काहे की इस रचनाकी तारीफ करने के लिए हम कल से शब्द ढूंढ रहे हैं और हम थक गए हैं…अपनी सारी कल्पना, अपनी उर्जा, और अपने शब्द सामर्थ्य को खंघालते-खंघालते सीठा कर दिए हम..न शब्द मिले न भाव …जिनमें इस रचना की तारीफ करने की ताब हो…इसी लिए एक बार फिर हिंदी की स्नातकोत्तर विद्यार्थी की सार्थक टिपण्णी की चोरी या डाका डाल कर वही कह दे रही हूँ जो वाणी ने कहा है..
जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी सरीखी आपकी रचना…हैरान कर गयी ही बस…!!
एक कुहरे में लिपटी सुबह का इस से सुन्दर चित्रण नहीं हो सकता….अब हर भोर ये पंक्ति याद दिला दे जायेगी….आकाश किसी बालिका के स्मित मधुर हास की मीठी किरणों से उजास पा गया है ।
हाँ, पर जान पडता है यह शिशिर बाला ..प्रातः के स्वप्न में भी कुछ हलचल कर गयी थीं..सो जगा भी गयीं सुबह-सुबह ..!पता नहीं भाभी जी मायके से आयीं अथवा नहीं..उन्हीं से कुछ शिकायत कर आता आपकी और अलसुबह एक चाय भी पी आता…!
@श्रीश भाई,
अनुमान बहुत गलत नहीं है आपका । अभी चरण नहीं पड़े अर्द्धांगिनी के यहाँ, मायके ही हैं ।
ये तो ज्यादती है..अधिक क्या कहूँ..ऋतू साक्षी है..!
बेहद सुन्दर लिखा है भाई..मौज के फेर में रचना पर कुछ कह ना सका..!
आपकी शैली बेहद आकर्षित करती है..! शिशु मंदिर के दिनों से ही ऐसी लेखनी पढने के आदी रहे..पर अब कहाँ..मिलावटी ही मिलावटी..वैसे मिलावटी का अपना मिठास है..पर शुद्धता भी कोई चीज होती है यार…!
कल्पना-प्रखरता भी विस्मित कर देती है..निश्चित ही बापू जी से खींच लाई है आपने श्रम-स्वेद तो दिखता ही है..ढेरों शुभकामनायें…!
@ मौज के फेर में ……..
फुरसतिया जी से मिलने का प्रभाव है भईया ! पर उनके पास एक कला है सब कुछ के बाद भी निस्पृह रहने की । आप यह भी सीख लीजिये ।
"कौन तुम संसृति जलनिधि तीर ?
तरंगों से फेंकी मणि एक …."
ऐसे अब कम ही बचे हैं। जो बचे थे वे प्रदूषित हो चुके हैं जिनमें मैं भी सम्मिलित हूँ। लौ जलाए रखिए – बहुत आवश्यकता है।
वैसे आप की इस पोस्ट से मैं भी प्रेरित हुआ हूँ – कभी ऐसा ही कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ – टिप्पणी का विकल्प बन्द कर 🙂
मनीष कुमार जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी –
"गौतम बुद्ध की आध्यात्मिक सोच , उनके सन्यास लेने के कारणों पर कभी विस्तार से पढ़ने का मौका नहीं लगा। बस इतना जानता हूँ कि जब भी बुद्ध स्मारकों के पास जाता हूँ मन एक अज़ीब सी शांति से भर जाया करता है।
आप इतनी अच्छी भाषा में गौतम बुद्ध के विचारों को सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं ये अपने आप में एक श्रमसाध्य कार्य है जिसके लिए आपकी जितनी तारीफ की जाए कम होगी।
ये टिप्पणी तख्ती पर टाइप कर आपके ब्लॉग पर डालने गया पर असफलता हाथ लगी। इस लिए यहाँ मेल द्वारा प्रेषित कर रहा हूँ"
regards
Manish
—
ek-shaam-mere-naam.blogspot.com
travelwithmanish.blogspot.com
फुरसतिया में मौज का स्थाई भाव है , खालिस 'कुदरती'…नायाब …फुरसतिया-स्फीति
पर ही पोस्टें कम पड़ जायेंगी …
……… पोस्ट पर दिल से टीपा था , लाइटियाई बिला गयी तब , अब अपने
टीप-माल को खोज रहा हूँ पर असफल पा रहा हूँ खुद को , उससे इतर कुछ कहूँ
यह गवारा नहीं मुझे .. क्या है तुम्हारे लेखन में गुरु जो मुझसे इतना सब करवाने
लगता है ..