
प्रभु मखमली सेज पर शांत मुद्रा में लेटे हैं। रुक्मिणी पैर सहला रही हैं।
समीप में विविध भोग सामग्री सजी पड़ी है। गृह परिचारिकाएँ पंखा झल रहीं हैं।
मह-मह सुगन्ध से पवन बोझिल है।)
कृपा-करुणा-वरुणालय, स्नेहाम्बुनिधि, आनन्द-धन द्वारिका नरेश! सिंहद्वार पर
एक अत्यन्त दीनहीन जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण किए, मलिन, थकित, निरावृत पग
ब्राह्मण कब से खड़ा है। वह आप से मिले बिना जाने का नाम नहीं ले रहा है।
सुदूर देशवासी उस भिक्षुक से दीखने वाले ब्राह्मण की वाणी में बड़ी करुणा
है, बड़ा दैन्य है। अपना नाम सुदामा बता रहा है। आपको अपना बालमित्र बता रहा
है और कब से आप का धाम पूछते-पूछते भटकते-भटकते सिंहद्वार तक पहुँचा है।
क्या आज्ञा है प्रभु?

श्रीकृष्ण: अरे सुदामा!
पीछे छूट जाता है। रुक्मिणी सिंहासन के हिलने से नीचे गिर जाती हैं। कृष्ण
पागलों की तरह विक्षिप्त हो, प्राचीर से लड़ते भिड़ते, अस्त-व्यस्त दुकूल
सिंहद्वार पर पहुँच जाते हैं। अपनी मृणाल बाहों में विप्र को भरकर कलेजे से
सटा लेते हैं। फूट-फूटकर रोते हैं, चरण चूमते हैं। अपने पीताम्बर को उनके
गले में लटका देते हैं। फिर गोद में शिशुवत उठाकर कुशल-क्षेम पूछना
प्रारम्भ करते हैं।)
मित्र! हे अंतरंग सुहृद! अब तक आप कहाँ थे? हाय रे, ये बेवाय फटे पाँव।
हाय-हाय ये कंटक चुभीं अंगुलियाँ और पथ के पाषाणों से ठोकर खायी पगतली! हाय
मैं क्या देख रहा हूँ। इतना दुःख बोझ ढोते-ढोते कैसे दिन काटते रहे मित्र?
तुम्हारा कृष्ण मर थोड़े ही गया था। मेरा तो होना भी न होना हो गया। हाय
रे! रुक्मिणी जलपात्र लाओ। विप्र देवता का पग प्रक्षालन करें। पावन कर लो
इस परम भागवत के पद जल से अपने राज प्रासाद का कोना-कोना। दौड़ो, जल्दी करो,
जल्दी करो। मुँह क्या देख रही हो खड़ी-खड़ी! परिचारकों कलेवा की थाली लाओ।
सेवकों, पंखा झलो। गृहदासी, शीतल जल लाओ। आह! मेरे सखा, कृष्ण के सखा! इतने
दिनों तक मुझे क्यों बिसारे रखा?
के पाँवों को अपने हाथों में लेकर आँखों से बार-बार सहला रहे हैं। युगल
नयनों की जलधारा से पाँव धुलता जा रहा है। रुक्मिणी का जलभरा पात्र अभी
पहुँचा नहीं कि पगतली बार-बार धुलती गयी।)
जैसी तुम करी, तैसी करै कोकृपा को सिन्धु, ऐसी प्रीति दीनबन्धु दीनन पर आनै को।
जैसा सुना वैसा नहीं, उससे कोटि गुना अधिक पाया। जीवन धन्य हो गया। हे
कृष्ण तुम्हारी जय हो! जय हो! जय हो! (दोनों परस्पर गले मिलते हैं और एक
दूसरे को सहलाते हैं।)
अरे भोजनभट्ट मेरे बड़े भैया! मेरे सुहृद, यह क्या कर रहे हो? भाभी की भेंट
लौटाकर ले जाओगे? प्राचीन आदत मिटी नहीं? मित्र से चोरी अब नहीं चलेगी।
सुदामा कुछ समझ पाते कि कृष्ण उनकी काँख से फटी तन्दुल की पोटली बाहर खींच
लेते हैं। कुछ चावल भूमि पर बिखर जाते हैं। श्रीकृष्ण जन्म-जन्मांतर भूखे
की भाँति चावल मुट्ठी में भर फाँकना प्रारम्भ कर देते हैं)
काफी पुरानी धरोहर है। बिना खाये चैन कहाँ? सुदामा जी! आपकी दीनता और
श्याम की दिव्यता का द्वन्द्व युद्ध प्रारम्भ हो गया है। जो लाये हो, अब
उसे लेकर नहीं जाओगे।
गाल में भर लेते हैं, दूसरी भरकर मुँह के पास ले जाते हैं, तब तक रुक्मिणी
आगे दौड़ती हैं। दूसरी मुट्ठी भी कृष्ण मुख में डालते हैं। तीसरी भरने के
पूर्व ही रानी उनकी कलाई कसकर पकड़ लेती हैं, प्रभु ठिठक जाते हैं। सुदामा
काष्ठवत् सब चुपचाप देख रहे हैं। पूरा रनिवास, सभी सेवक स्तब्ध हैं।)
हे भुवनेश्वर! दो मुट्ठी तंदुल फाँककर आपने एक भिखारी को दो लोकों का वैभव
बिहारी बना दिया है। क्या तीसरी मुट्ठी खाकर गली-गली के मंगन भिखारी स्वयं
बन जाना चाह रहे हैं! अब रुक जाओ भक्तवत्सल!
के नयन नीर बरसा रहे हैं। सुदामा की हिचकी बँधी है। मंदहास मुरली मनोहर
सुदामा के पास आ बैठ जाते हैं। उनकी भुजायें सुदामा के कंधे में झूल जाती
हैं। दोनों एक दूसरे को अपलक निहार रहे हैं। दीनानाथ दीनबंधु भक्तवत्सल
श्रीकृष्णचन्द्र की जय से वातावरण गूँज उठता है।)