इस प्रविष्टि में कृष्ण सुदामा का मिलन है, भाव की अजस्र धारा है। पिछली प्रविष्टियों  ’बतावत आपन नाम सुदामा – एक और दो से आगे।


कृष्ण सुदामा का मिलन

(प्रहरी राजमहल में प्रवेश करता है। प्रभु मखमली सेज पर शांत मुद्रा में लेटे हैं। रुक्मिणी पैर सहला रही हैं।
समीप में विविध भोग सामग्री सजी पड़ी है। गृह परिचारिकाएँ पंखा झल रहीं हैं। मह-मह सुगन्ध से पवन बोझिल है।)

प्रहरी: हे देवाधिदेव! कृपा-करुणा-वरुणालय, स्नेहाम्बुनिधि, आनन्द-धन द्वारिका नरेश! सिंहद्वार पर एक अत्यन्त दीनहीन जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण किए, मलिन, थकित, निरावृत पग ब्राह्मण कब से खड़ा है। वह आप से मिले बिना जाने का नाम नहीं ले रहा है। सुदूर देशवासी उस भिक्षुक से दीखने वाले ब्राह्मण की वाणी में बड़ी करुणा है, बड़ा दैन्य है। अपना नाम सुदामा बता रहा है। आपको अपना बालमित्र बता रहा है और कब से आप का धाम पूछते-पूछते भटकते-भटकते सिंहद्वार तक पहुँचा है। क्या आज्ञा है प्रभु?

श्रीकृष्ण: अरे सुदामा!

(प्रहरी पीछे छूट जाता है। रुक्मिणी सिंहासन के हिलने से नीचे गिर जाती हैं। कृष्ण पागलों की तरह विक्षिप्त हो, प्राचीर से लड़ते भिड़ते, अस्त-व्यस्त दुकूल सिंहद्वार पर पहुँच जाते हैं। अपनी मृणाल बाहों में विप्र को भरकर कलेजे से सटा लेते हैं। फूट-फूटकर रोते हैं, चरण चूमते हैं। अपने पीताम्बर को उनके गले में लटका देते हैं। फिर गोद में शिशुवत उठाकर कुशल-क्षेम पूछना प्रारम्भ करते हैं।)

(विप्र के पाँवों को अपने हाथों में लेकर आँखों से बार-बार सहला रहे हैं। युगल नयनों की जलधारा से पाँव धुलता जा रहा है। रुक्मिणी का जलभरा पात्र अभी पहुँचा नहीं कि पगतली बार-बार धुलती गयी।)

सुदामा: (गदगद कंठ, स्खलित वाणी, भावविभोर होकर) सखा मेरे, हे प्यारे कृष्ण!

जैसी तुम करी, तैसी करै को
कृपा को सिन्धु, ऐसी प्रीति दीनबन्धु दीनन पर आनै को।

प्रभु जैसा सुना वैसा नहीं, उससे कोटि गुना अधिक पाया। जीवन धन्य हो गया। हे कृष्ण तुम्हारी जय हो! जय हो! जय हो!

(दोनों परस्पर गले मिलते हैं और एक दूसरे को सहलाते हैं।)

Krishna-Sudamaश्रीकृष्ण: अरे भोजनभट्ट मेरे बड़े भैया! मेरे सुहृद, यह क्या कर रहे हो? भाभी की भेंट लौटाकर ले जाओगे? प्राचीन आदत मिटी नहीं? मित्र से चोरी अब नहीं चलेगी। (अभी सुदामा कुछ समझ पाते कि कृष्ण उनकी काँख से फटी तन्दुल की पोटली बाहर खींच लेते हैं। कुछ चावल भूमि पर बिखर जाते हैं। श्रीकृष्ण जन्म-जन्मांतर भूखे की भाँति चावल मुट्ठी में भर फाँकना प्रारम्भ कर देते हैं) काफी पुरानी धरोहर है। बिना खाये चैन कहाँ? सुदामा जी! आपकी दीनता और श्याम की दिव्यता का द्वन्द्व युद्ध प्रारम्भ हो गया है। जो लाये हो, अब उसे लेकर नहीं जाओगे।

(एक मुट्ठी गाल में भर लेते हैं, दूसरी भरकर मुँह के पास ले जाते हैं, तब तक रुक्मिणी आगे दौड़ती हैं। दूसरी मुट्ठी भी कृष्ण मुख में डालते हैं। तीसरी भरने के पूर्व ही रानी उनकी कलाई कसकर पकड़ लेती हैं, प्रभु ठिठक जाते हैं। सुदामा काष्ठवत् सब चुपचाप देख रहे हैं। पूरा रनिवास, सभी सेवक स्तब्ध हैं।)

रुक्मिणी: हे भुवनेश्वर! दो मुट्ठी तंदुल फाँककर आपने एक भिखारी को दो लोकों का वैभव बिहारी बना दिया है। क्या तीसरी मुट्ठी खाकर गली-गली के मंगन भिखारी स्वयं बन जाना चाह रहे हैं! अब रुक जाओ भक्तवत्सल!

(प्रभु के नयन नीर बरसा रहे हैं। सुदामा की हिचकी बँधी है। मंदहास मुरली मनोहर सुदामा के पास आ बैठ जाते हैं। उनकी भुजायें सुदामा के कंधे में झूल जाती हैं। दोनों एक दूसरे को अपलक निहार रहे हैं। दीनानाथ दीनबंधु भक्तवत्सल श्रीकृष्णचन्द्र की जय से वातावरण गूँज उठता है।)


दृश्य तृतीय

(सुदामा का राजमहल सरीखा भवन। पहरेदार, तोरण-पताका, कोष, राजवैभव।) 

सुदामा:(चकित-से) अरे मेरी कुटिया कहाँ है? क्या मैं पथ भूल गया हूँ? कहाँ गयी मेरी धर्मभार्या, मेर जीर्णशीर्ण वस्त्रादि, मेरी पूजास्थली, दण्ड आदि। 

(सजी-सँवरी स्त्री के रूप में सुदामा की पत्नी का प्रवेश। हाथ मे आरती की थाल।) 

ब्राह्मणी: स्वामी! मैं ही आपकी वह भार्या हूँ जो मृत्यु का वरण करने के लिए महाकाल का थाल सजा रही थी। आज आपके सामने पूजन की थाली लेकर खड़ी हूँ। आप घर से निकले नहीं कि पलक मारते विश्वकर्मा ने यह सौंध सजाना प्रारम्भ कर दिया। सच में, कृष्ण की अघट घटना पटीयसी करुणा ने मेरी वेदना को आनन्द रागिनी में बदल दिया। (सुदामा की आरती उतारती हैं। सुदामा के आँसू थमने का नाम नहीं लेते।) 

सुदामा: प्रियतमे! अब कृष्ण प्रीतिचन्द्र में ग्रहण मत लगने देना। माँगा ही मुँह खोलकर तो फिर रह ही क्या गया?  

(सुदामा विभोर जयकृष्ण, जयकृष्ण कह फूट पड़ते हैं। ब्राह्मणी लज्जित, संकुचित अपने आँचल से उनके आँसू पोंछती है।) 

ब्राह्मणी: प्रियतम! दारिद्र्य-अर्गला भग्नकर कृष्ण कृपा की किरण मेरी कुटिया में आ लगी है। मेरे प्राण आज अक्षय विश्वास से भरकर मुस्करा उठे हैं। प्रभु! प्रभात के इस प्रथम निःश्वांस के साथ मेरी चेतना आपको नमन कर सदा के लिए अक्षय बन जाय। मेरी जीवन-यात्रा का पुण्य प्रहर शृंगार कर उठा है। मेरे नैराश्य की शून्य नगरी स्वर्णिम शिखरों से मंडित हो उपहार लुटा रही है और मेरी प्राण-वीणा के तारों पर जैसे आरोह की रागिनी बज उठी है। 

(ब्राह्मणी क्षमा याचना के भाव में विप्र के चरणों में बिछ जाती है। सुदामा के नेत्र बन्द हैं। हाथ प्रार्थना की मुद्रा में उठे हैं। जय-जयकार होती है।

|| समाप्त ||