(द्वारिकापुरी का दृश्य। वैभव का विपुल विस्तार। धन-धान्य का अपार भण्डार। धनिक, वणिक, कुबेर हाट सजाये। संगीतागार, मल्लशाला, शुचि गुरुकुल, प्रशस्त मार्ग, गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की मणि-माला, विभूषित अखण्ड शृंखला, सुसज्जित घने विटप एवं राज्य सभागार के फहरते तोरण। सुदामा चकित, विस्मृत, आत्मविभोर चिन्तनरत कृष्णधाम की खोज में बढ़े चले जा रहे हैं। उपानह हीन पैर, फटा कुर्ता, घुटने तक धोती, फटी पगड़ी, फटा चादर कंधे पर।)
सुदामा: (स्वगत) हे श्रीकृष्ण, सीढ़ियाँ तो केवल खड़े होने के लिए होती हैं। जबकि अवगाहन सीढ़ी से सम्पूर्ण समर्पण माँगता है। तुमसे मिलूँगा तो मैं कहूँगा कि मेरे लिए सबसे प्रिय कार्य यही है कि जिस तरह दर्पण के सामने खड़े होकर मैं अपना मुख निहारा करता हूँ उसी तरह तुम्हारे सामने खड़े होकर अपनी आत्मा को तुम्हारे नेत्रों में प्रतिबिम्बित होता हुआ देखा करूँ। मेरी आत्मा एक नूतन आनन्द के लिए तड़प रही है। उसकी बातों ने मुझे ढकेलकर तुम्हारे द्वारे कर दिया है और मैं अपने व्यग्र हृदय को लेकर तुम्हारे पास आया हूँ।
(मार्ग में भूले हुए-से लोगों से पूछते हैं) भैया! द्वारिकाधीश का धाम कहाँ है? वे कहाँ मिलेंगे? वे मेरे बाल सखा हैं।
(लोग नाक भौं सिकोड़कर दुर्बल गात विप्र को आगे बढ़ने का संकेत कर देते हैं। वे पुनः विचार मग्न हो ठिठकते चले जा रहे हैं। एक ही तरह की भवन शृंखला एवं समान वैभव विस्तार से उन्हें आश्चर्य एवं मतिभ्रम हो रहा है।)
सुदामा: (स्वगत) वाह रे द्वारिका के राजाधिराज! अधिक तपस्वी वे ही हैं जो पहले भी ताप सहे और अन्त में भी। उनकी तपस्या की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं जिन्होंने प्रारम्भ में भले ही यातनायें सहीं किन्तु अन्त में तो मेवा ही चखा। (प्रकट) हे भाई गृहपति! द्वारिकाधीश का द्वार कौन है, बता दोगे? (आगे बढ़ने का इशारा पाते हैं)
सुदामा:(एक भद्र पुरुष से पूछते हैं) तात! राजाधिराज महाराज द्वारिकापति भूप श्यामसुन्दर मदनमोहन श्रीकृष्णचन्द्र जी का घर कौन-सा है?
भद्र पुरुष: विप्रवर! ठीक सामने वह जो स्वर्णखचित सिंहद्वार दृष्टिगोचर हो रहा है, वही महाराज श्रीकृष्ण का घर है। प्रहरी वहां विराजमान हैं। उन्हीं से आपको सब ज्ञात हो जायेगा।
सुदामा: चिरंजीव भद्र। (पास जाते-जाते बुदबुदा रहे हैं) प्यारे कृष्ण! कब तुम्हारा मुखचन्द्र देखूँगा! धरती की धूलि आकाश पर खिले उज्जवल प्रसून का सुख चाह रही है। तुम्हारे ध्यान से मेरी सम्पूर्ण स्मृति मूर्च्छित-सी होती जा रही है। लगता है, अब कुछ भी निवेदन करने का अवसर नहीं रह गया है।
(पास पहुँचकर एक प्रहरी से निवेदन करते हैं)
मेरे प्यारे कृष्णानुरागी प्रिय! मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो। मेरा नाम उन्हें बता देना। कहना, गुरुकुल में साथ-साथ पढ़े सुदामा नामधारी ब्राह्मण आपका दर्शन करना चाहते हैं। कृष्ण मेरे बाल सखा हैं। मेरी यह विनती उन तक पहुँचा न दो मेरे प्यारे।
प्रहरी: विप्र! प्रभु के विश्राम का समय तो हो गया है। क्या आप कुछ रुक नहीं सकते हैं?
सुदामा: भैया! बहुत दूर से आया हूँ। कृष्ण प्यारे का अधिक समय नहीं लूँगा। हालचाल के बाद तुरन्त वापस हो जाऊँगा। ब्राह्मण की विनती है। अनसुनी न करो। मैं उनसे मिलने को बेचैन हूँ।
प्रहरी: अच्छा ठहरिए! देश, काल, अवसर देखकर तदनुसार आपको सूचित करता हूँ।
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