आचार्य शंकर की विशिष्ट कृति सौन्दर्य लहरी के पठन क्रम में इस स्तोत्र-रचना निर्वाण षटकम् से साक्षात हुआ था । सहज और सरल प्रवाहपूर्ण संस्कृत ने इस रचना में निमग्न कर दिया था मुझे। बस पढ़ने के लिए ही हिन्दी में लिखे गए इसके अर्थों को थोड़ी सजावट देकर आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। शिवरात्रि से सुन्दर अवसर और क्या होगा इस प्रस्तुति के लिए। आचार्य शंकर और शिव-शंकर दोनों के चरणों में प्रणति! सभी को शिवरात्रि की शुभकामनायें!
निर्वाण षटकम् का हिन्दी भावानुवाद
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम्
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
मैं मन नहीं हूँ, न बुद्धि ही, न अहंकार हूँ, न अन्तःप्रेरित वृत्ति;
मैं श्रवण, जिह्वा, नयन या नासिका सम पंच इन्द्रिय कुछ नहीं हूँ
पंच तत्वों सम नहीं हूँ (न हूँ आकाश, न पृथ्वी, न अग्नि-वायु हूँ)
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु:
न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
मैं नहीं हूँ प्राण संज्ञा मुख्यतः न हूँ मैं पंच-प्राण1 स्वरूप ही,
सप्त धातु2 और पंचकोश3 भी नहीं हूँ, और न माध्यम हूँ
निष्कासन, प्रजनन, सुगति, संग्रहण और वचन का4;
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥३॥
न मुझमें द्वेष है, न राग है, न लोभ है, न मोह,
न मुझमें अहंकार है, न ईर्ष्या की भावना
न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हीहैं,
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥४॥
न मुझमें पुण्य है न पाप है, न मैं सुख-दुख की भावना से युक्त ही हूँ
मन्त्र और तीर्थ भी नहीं, वेद और यज्ञ भी नहीं
मैं त्रिसंयुज (भोजन, भोज्य, भोक्ता) भी नहीं हूँ
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥५॥
न मुझे मृत्य-भय है (मृत्यु भी कैसी?), न स्व-प्रति संदेह, न भेद जाति का
न मेरा कोई पिता है, न माता और न लिया ही है मैंने कोई जन्म
कोई बन्धु भी नहीं, न मित्र कोई और न कोई गुरु या शिष्य ही
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय:
चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥
मैं हूँ संदेह रहित निर्विकल्प, आकार रहित हूँ
सर्वव्याप्त, सर्वभूत, समस्त इन्द्रिय-व्याप्त स्थित हूँ
न मुझमें मुक्ति है न बंधन; सब कहीं, सब कुछ, सभी क्षण साम्य स्थित
वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।
कौन कहता है संस्कृत एक मृत भाषा है -जिसमें इतन लालित्य और प्रांजलता हो
जो सीधे ह्रदय से सम्बन्ध स्थापित करती हो वह भाषा कभी मर भी सकती है !
संस्कृत में पढ़कर आनन्दमय हो गये…अभी अभी नमामीशमीशाम् का पाठ कर के उठे हैं..
संस्कृत समझने वाले को कई दूसरी भारतीय भाषाएं समझने में कहीं कम मेहनत करनी पड़ती है
अद्भुत !
यहाँ आकर हमेशा ज्ञानवर्धन होता है.
प्रभावशाली ,
जारी रहें।
शुभकामना !!!
आर्यावर्त
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निश्चय ही इस संस्कृत का कहना ही क्या! सदैव खींचती है यह अपनी ओर! मृत भाषा अ-संवेदित हृदय से निकली संज्ञा है…अव्यवहृत कहता हूँ मैं। इस भाषा की सम्पदा से भूषित हैं हिन्दी और अन्य अनेकों भाषायें-यह मृत कैसे?
हाँ, हमारा तो पाठ हो ही गया, इस प्रविष्टि के प्रकाशन क्रम में! संस्कृत आनन्दमय है ही..प्राणमय भी है।
इस संस्कृत के आगे तो सब न्यौछावर है साहब! मेहनत दूसरी बात है।
आपकी टिप्पणी सदैव उत्साह भरती है। स्नेहाकांक्षी मैं।
संस्कृत भाषा ये तो सब शास्त्र का आत्मा है और हमारे भारत का सबसे प्रगत राष्ट्र था इसका प्रमाण है संस्कृत विज्ञानाने जो आज खोज लगाये वो काई हजारो वर्षे पहिले ऋषी मुनियोने लगाये थे उसी संस्कृत ग्रंथो को अभ्यास करने से ये पत्ता चालत है हमारे बहुत सारे ग्रंथ तो प्रदेश के लोगोने चुरा लिये और कुछ अज्ञान वंश निरुयोगी समज के लोगोने उसकी हिफजत नही की संस्कृत को शालेय अभ्यासक्रम मे जरूर लाना चाहीये ताकी ऋषी मुनीने किया हुआ खोज का हमको आसनिसे पता चले
आगमन व टिप्पणी का आभार।