Diary

Diary-डायरी के पन्ने ब्लॉग पर

Diary-डायरी लिखने की आदत बचपन से है। नियमित-अनियमित डायरी लिखी जाती रही। यद्यपि इनमें बहुत कुछ व्यक्तिगत है, परन्तु प्रारम्भिक वर्षों की डायरियों के कुछ पन्ने मैंने सहजने के लिए ब्लॉग पर लिख देना श्रेयस्कर समझा, चूँकि ब्लॉग भी एक Diary-डायरी ही तो है।

01 जनवरी 2002 (09:40 रात्रि)

diary
  • नये वर्ष का अतिथि सम्मुख है। संदेश हैं जिन्हें निरख रहा हूँ। मैं हर वर्ष इन कार्ड्स में अपनी आत्मीयता के सूत्र ढूँढ़ता हूँ, फूल मिलता है, चटक धूप भी पर गंध नहीं मिलती।
  • नैराश्य अतार्किक होता है, समझ से पार। हँसी के मुलम्मे इसे ढँक नहीं पा रहे। मैं नये वर्ष की बधाईयों में इसे मार डालने का षढ़यंत्र रच रहा हूँ।
  • नये वर्ष के एक बधाई कार्ड पर दीर्घ पथ के अंतिम छोर पर विशाल गिरिमाला दिख रही है और उसे आच्छादित करती हुई घनी धुंध। मैं दौड़ कर उस पथ के पार जा रहा हूँ, उस व्याकुल धुंध में तनिक श्वाँस लूँ।

02 जनवरी 2002 (11:10 रात्रि)

  • मन ठीक है आज। योजनाएँ बनाने का अनोखा राग है मेरे भीतर। काम नहीं करता, योजनाएँ बनाता हूँ, योजनाएँ बनाने के लिए फिर-फिर योजनाएँ बनाता हूँ। अध्ययन से दूर अध्ययन की अनेकों योजनाएँ मैंने बनाई-बिगाड़ी हैं अब तक।
  • आज फिर कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स मिले। सबको खँगाला। उँह! कहाँ रह गया! फिर-फिर देखा।
  • तुमने तो पठाया था, पथ में विरम गया। तुम्हारा भेजा हुआ (मन का ही) मैंने बाँच लिया (मन से ही)। स्वीकारो- ’मंगलमय नव-वर्ष’।
  • एक कविता सुबह से अठखेलियाँ कर रही है मन में। देखूँ कागज पर कब ठिठक सजती है।

03 जनवरी 2002 (09:10 रात्रि)

  • प्रेम के नाम पर इस संसार में जो कुछ भी होता है, उसे मैं प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा न होता तो ठीक होता। तुम आज कैसे विहँस रहे थे उस घड़ी.. मैं तो दूर खड़ा था, यद्यपि तुममें ही निमग्न। मेरे अलावा किसी और से तुम्हारी सामीप्य! मैं जल-बुझ क्यों नहीं जाता। प्रेम में हूँ इसलिए तुम्हारा अपर-वार्तालाप मुझे स्वयं से हो रहा लगता है। मैं सराह रहा था तुम्हें, क्या खूब हैं तुम्हारी भंगिमायें।
  • हृदय की ध्वनि-सुदूर होकर भी पास होने का अनुभव। मुझे पता है, सामाजिक बाधायें या आकर्षण खींच लेंगे तुम्हें, समय तो वहीं बीतेगा तुम्हारा, पर गहरे अन्तर गुनगुनाया जाऊँगा मैं ही(जानता हूँ)।
  • कविता आज भी इधर-उधर घूमती रही, पर लिख कर बाँध नहीं सका उसे।
  • बाबूजी ने पढ़ने के लिए बहुत सारी सामग्री दे दी है। प्रमाद का अवकाश नहीं है, यद्यपि बाबूजी ऐसी कोई बात नहीं कहते। कर्तार सिंह दुग्गल की कहानी ’कहानी कैसे बनी’ से शुरुआत करनी है।

05 जनवरी 2002 (08:47 रात्रि)

  • अखबार की कतरनों में ही दिन भी कटता चला गया। दिन भर पुरानी कतरनों को छानता रहा, कुछ फेंक दिया, कुछ रख छोड़ा। कतरनों में ही खोजता रहा पूरे का पूरा पृष्ठ।
  • शाम की चाय पी तो सारी कतरनें चाय के पानी में डूब कर गल-सी गयीं।
  • रात हो गयी है-डायरी लिख रहा हूँ।

06 जनवरी 2002 (08:35 रात्रि)

  • सात बजे आँख खुली-ठंडक ने पाठ पढ़ा दिया।
  • जल की शीतलता को केवल हृदय ने आत्मीयता से ग्रहण किया, शेष जिह्वा तो लाचार हो उठी, दाँत अवश पिघलने लगे।
  • शीत में स्वेद का मन हो आया। दूर तक निकल गया, दौड़ते हुए। लौटा तो श्वाँस तीव्र थी, स्वेद अभी भी लजा रहा था। पता था दौड़ में कमी होगी, पर चूतियापा पसीने का समझ आया।
  • उपलब्धि प्रयास का मर्म उघाड़ कर रख देती है।
  • मेरा पसीना तुम्हारे हाथों से पोंछा जा सकेगा कभी! आज फ़िर तुम्हारा स्मरण हुआ।

07 जनवरी 2002 (10:05 रात्रि) 

  • सामाजिक व्यस्तताओं की गर्मी ने पूरे दिन को वाष्प बनाकर उड़ा दिया।
  • सुबह 09:30 बजे मास्टर साहब आये, याद दिलाने कि मेरे भीतर का विद्यार्थी अभी बचना चाहिए। तीन ट्यूशन करके लौटे थे, उन विद्यार्थियों की मेधा का बखान कर रहे थे। मैं अनुमान लगा रहा हूँ, क्या छः सात वर्ष पहले मेरी पढ़ाई के समय मास्टर साहब दूसरों से ऐसे ही बखानते होंगे मुझे! उन्होंने कहा एक लड़की है, उनकी विद्यार्थी है; बहुत सुन्दर है, शादी योग्य है। मैं कैसा रहूँगा उसके लिए? मैंने कहा. “खाने का वक्त हो रहा है, खा लीजिए”।
  • शाम आ गयी। आज सदा ही चुप रहने वाले ने मेरे सम्मुख मुँह खोलकर कुछ कहा, हँस भी दिया। तो आज प्रारम्भ में वह चुप रहने वाला चुप रहा, अच्छा लगा। फिर मुँह खुला, बोलने लगा तो और भी अच्छा और हँस दिया  तो अच्छे से भी अच्छा।
  • आज ही सन्नाटे का छन्द टूटा, मैं विहँस पड़ा।

09 जनवरी 2002 (09:55 रात्रि)

  • सुबह बाबूजी ने मूल्यों की बात की, वे मूल्य जिनसे भारतीय मानस अभिन्न रूप से संयुक्त है। उन्होंने मेरे अति आस्तिक भाव पर चोट की है, सतही बौद्धिकता को नकारने का प्रण लिया है मुझसे और ऐसी किसी भी क्रिया, क्रान्ति और उद्यम से बचने को कहा है जो निष्प्रेम हो। मैं समझने का प्रयास कर रहा हूँ, बाबूजी मुझसे आडम्बर, झूठे गुरुओं एवं छद्म बौद्धिकों की  भीड़ से अलग कुछ और ही ढूँढ़ने को कह रहे हैं।
  • शाम को ’स्वामी विवेकानन्द’ का एक बड़ा चित्र फ्रेम करा लाया। जानता हूँ यह चित्र सदैव प्रतिध्वनित करेगा-’उत्तिष्ठत् जाग्रत…।
  • आज गीताप्रेस से प्रकाशित ’श्री मद्भगवद्गीता’ पढ़ने के लिए उठायी है।