मेरे प्रिय! हर घड़ी अकेला होना शायद बेहतर विकल्प है तुम्हारी दृष्टि में। मैं वह विकल्प नहीं बन सका जो बनना चाहता था।
मुझे मेरी अतिशय भावनाओं ने मारा, मेरे सारे बेहतर काम दब गये मेरी भावनाओं के प्रकटीकरण में। तुम्हें नियंत्रित लोग, भावनायें, इच्छायें और संयमित व्यक्तित्व चाहिए, जो मैं बन कर दिखा न सका!
मैं विराट प्रेम की थाह में था, सब खो कर भी आपको पाने की अदम्य भावना से भरा, कुछ भी इधर-उधर न हो, इस तीव्र इच्छा से संपृक्त। पर भाग्य अबूझ है मेरे लिये। चन्द्रमा लिखने जाता हूँ, राहु लिख कर लौटता हूँ।
आपकी ऊँचाई के आस-पास भी न पहुँचा। आपके हृदय को दुखाया, अनेकों बार। आपने बहुत बार नजरअंदाज किया, पर हर बार कैसे क्षमा करेगा कोई! तुम्हारा दिया दंड मेरे लिये अनंत में जाने की राह बनेगा।
आपके आने के बाद धरती सुन्दर थी, लगने भी लगी थी, सब कार्य, निर्णय करने का एक उद्देश्य था। आपने सहज ही सारे संकट खत्म कर दिये मेरे लिये। अब कोई संघर्ष न रहा। आकाश की यात्रा की जा सकेगी अब। धरती पर रहने का उद्देश्य खो गया अब।
निश्चित ही तुम्हें प्यार करना और तुम्हारा प्यार पाना अनूठी उपलब्धियाँं थीं मेरे लिये। जानता हूँ, यह आपकी इच्छा और कृपा से ही संभव हो पाया था।
दैवीय आत्मायें स्वयं किसी की इच्छा नहीं करतीं बिलकुल तुम्हारी तरह, पर उनकी इच्छा सम्पूर्ण सृष्टि करती है। तुमने मुझे वह गौरव दिया, वह संतुष्टि दी, इसके लिये मेरा जीवन कृतकृत्य है, ऋणी है।
शायद उस वक्त मेरी दिशा सही थी, मैं योग्य रहा या न रहा। वह कृपा हमेशा साथ रहेगी मेरे। अब जबकि मेरी दिशा ही ठीक नहीं शायद, और तुमने मुझे मेरे किये का दण्ड दे दिया है, तो दूर कर लोगे मुझे फ़िर भी कैसे दूर हो पाऊँगा मैं? जो पा लिया है वह कैसे खोयेगा मेरे भीतर से?
मेरी माँग हमेशा से तुच्छ रही, तुम्हारे द्वारा वह माँगे पूरा किये जाने पर तुम्हारा गौरव घटता उसमें। मैं समझता हूँ यह। इसलिये- हर बुरी आदत छोड़ता रहा। पर बुराइयों से मुक्त न हो पाया, तुम्हारे योग्य न हो पाया।
मैंने सदैव तुम्हें कष्ट दिया, हमेशा तुम्हें परेशान किया, उससे तुम्हें छुटकारा ज़रूर मिलना चाहिए।