कुछ दिनों पहले एक भिक्षुक ने दरवाजे पर आवाज दी। निराला का कवि मन स्मृत हो उठा। वैसी करुणा का उद्वेग तो हुआ, पर व्यवस्था के प्रति आक्रोश ने शब्द का चयन बदल दिया। क्षमा के साथ। कुछ कहेंगे इस आशा के साथ भी ये कविता लिख रहा हूँ-
खूब तड़के अलसती-सी एक सुबह में, द्वार पर
एक ठठरी सी दिखी, कहती हुई उद्धार कर।
वह कसकती याचना और वह मसकता-सा वसन
घुल गया, घुलमिल गया उर में, मन हुआ अनमन।
वह अटकती-सी,हुटकती-सी मुसलसल बतकही
और उसमें गुलमुलाता झूठ,कह पड़ा-सच्ची कही।
स्नेह-वंचित, वृहद् कुंचित, मकड़ियों के जाल
उलझते-से, खुरखुरे-से, खुचखुचाते बाल।
घुप्प अँधेरा और ठहरी-सी नदी
कहाँ?उस आँख में,एक लम्बी सी सदी ।
सहम जाती,सटपटाती, सिहर जाती साँस
जिस तरह से सिमट जाती झुटपुटाती सांझ।
अचकचाता, बिलख जाता, ढुलमुलाता मन
ढुलक जाता,कंपकंपाता यों टिटिहिरी-सा बदन।
क्लांत होता, क्षान्त होता स्वेद-संचित मुख
सुख विगत-निधि, रंग पट पर आज मंचित दुःख ।
vPNk yxk !
पहले दिखे तो भाई !