केवट प्रसंग रामायण के अत्यन्त सुन्दर प्रसंगों में से एक है, खूब लुभाता है मुझे। करुण प्रसंगों के अतिरेक में यह प्रसंग बरबस ही स्नेहनहास का अद्भुत स्वरूप लेकर खड़ा होता है। विचारता हूँ राम की परिस्थिति को, कैकयी की निर्दयता अपना काम कर चुकी है, पिता से बिछड़ने का दुःख अभी असह्य ही है। सब कितना करुण है। तभी लटपटा प्रेम ले उपस्थित होता है केवट। कितना जरूरी है इस केवट का प्रवेश दृश्यावली में! इस करुण समय में प्रेम की ऐसी ही अभिव्यक्ति तो वांछित थी जो विभोर भी करे और स्नेहनहास से हँसाये भी। राम के जीवन की घटनाओं का संतुलन है यह, बाबा तुलसी की महानतम काव्य-कथा में राम के वनगमन की करुण कथा में ही समुआया ’ड्रॉमेटिक रिलीफ’ है यह केवट।
केवट प्रसंग का सौन्दर्य
Photo: Tripti Singh; Source: http://gangapedia.iitk.ac.in |
केवट की चातुरी अब समझ आयी है। यह सब पग-प्रच्छालन की चाल है। चरण-धूलि में ही अपने जीवन की सार्थकता की पराकाष्ठा देखने वाला अनन्य भक्त है केवट। सजल कर रहा है अपनी विदग्धता को। सारे तर्क ही तिरोहित हैं, सारी आशंकाएँ ही निर्मूल हैं- यदि चरण-रज मिले। केवट पी ले चरणामृत, बस इतनी-सी साध है।
“सुनि केवट के बचन प्रेम लपेटे अटपटे।
विहँसे करुणाअयन चितय जानकी लषण तन॥”
“काठे के कठवत में चरन पखारै रामा
चरन पखारि केवट पीयैं चरन अमरित हो”
(अति आनंद उमगि अनुरागा….)
वह तो पा चुका है- “नाथ आज मैं काह न पावा।” यह क्या स्वर्ण-मुद्रिका दे रहे हो नाथ! भवसागर में अटकी पड़ी नाव के खेवइया हो राम! तुमसे कैसी उतराई। केवट भाव-विह्वल है, सजल है। फिर भी विदग्ध है-
“भवसागर से परवाँ उतारा गंगा माई हो ।“
मलहवा बाबा ने गाया: वीडियो
यह वीडियो तो बस यूट्यूब पर अपलोड करने के लिए एकाध चित्र लगाकर बना दिया गया है। ऑडियो भी बहुत अच्छा नहीं था, क्योंकि रिकॉर्डिंग यंत्र ही नहीं था बेहतर कोई उस वक़्त। तेज वॉल्यूम कर काम चलाईये। अनुभूति अपना काम करेगी ही।
गीत का मूल पाठ
सुरसरि तीरवाँ खड़े है दुनो भईया रामा / अवधपुरी के रहवइया दुनो भईया रामा
सुरसरि पार के जवइया दुनो भइया रामा / केवट-केवट राम पुकारैं रामा।
भोरे में नइया डोलल आवैला केवटवा हो / भोरे में तीरवाँ ………
बिना पैर धोये नाथ नइया ना चढ़इबै हो / बिना पैर धोये…..।
काठे के कठवत में चरन पखारै रामा / चरन पखारि केवट पीयैं चरन अमरित हो
अगवाँ जे बइठैलें राम-लछमण सीता जी / पीछवाँ ले बइठैं गंगा माई की जल फइली
भोरे में तीरवाँ ………..।
खेवत खेवत केवट घटवा में गइलैं रामा / देवे लगलैं राम अपने हाथे कै मुंदरवा हो
ना लेबे राम तोहार हाथे कै मुंदरवा हो / देवे लगलें राम जब डाली भर सोनवां हो
ना लेबे राम तोहार डाली भर सोनवां हो।
नदिया में नारि के खेवइया पड़ि रामजी हो / तूँ त हउवा भवसागर के तरवइया रामा
केवट से केवट नाहिं लेवैं अब खेवइया हो / गहिरी बा नदिया देखा नइया बा पुरानी रामा
खेलन वाला अलख अनारी रामा।
बुढ़िया मलाहिन अरज करत बा हो / भवसागर से परवाँ उतारा गंगा माई हो
सुरसरि तीरवाँ खड़े हैं दुनो भइया रामा।
एक तरफ केवट की सजगता और दूसरी ओर राम के प्रति अनन्य भक्ति और प्रेम की अनूप भावना। वह छलक-छलक पड़ता है अपनी भावनाओं में। तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी ने रच कर गाया है- आवा हो जग नाव के खेवइया/ राघव तुम बिन सूनी मोरी नइया। जगद्गुरु श्री रामभद्राचार्य जी की रचना पर भावपूर्ण अभिनय का एक वीडियो भी मिला मुझे, अद्भुत आनन्ददायी।
राम तो सार्वकालिक हैं ,सार्वभौमिक हैं
तभी तो उनके द्वारा केवट को डाली भर सोनवा देना नहीं अखरता….."देवे लगलें राम जब डाली भर सोनवां हो "
बड़ा दिन बाद पुरानी बात याद आई..जतसार …विद्यानिवास मिश्र जी….मोरे राम क भीजै ला मुकुटवा , लखन क पटुकवा न हो . मोरी सीता क भीजै ला सेनुरवा त राम घर लौटहि हो
न जाने क्या बात है राम के बनवास मे.. बन मे उनके एक एक कदम पर हजारों – हजार लोकगीत हैं ..सुनकर कलेजा न जाने कैसा – कैसा करने लगता है.
सच है, राम का वनगमन विचित्र आकुलता पैदा करता है, कई तरह के विस्मय भी, विमर्श भी।
जतसारों पर एक पूरी प्रविष्टि शृंखला बनाने की सोची थी, अभी अधूरी ही है। विद्यानिवास मिश्र जी का स्मरण न हो तो लोक साहित्य की आधुनिक चर्चाओं पर एक उधार रह जाता है।
आप टिप्पणी तक उतर आये,, इस प्रविष्टि ने इतना तो काम किया ही। राम का स्मरण, केवट का आभार। आभार आप का भी।
३ साल पहले रामलीला में केवट प्रसंग देखा था… देखा नहीं था अपितु उसी प्रसंग में कहीं डूब गया था… बहुत ही मधुर और भक्तिपूर्ण दृश्य थे, कई कलाकार भी तुलसी बाबा की लेखनी को नया आयाम देते हैं…
भावपूर्ण पोस्ट के लिए आभार.
रामचरित-कथा के अनेकों प्रसंग ऐसे हैं जिनमें सुध-बुध बिसराकर बस गोते लगाते रहने का मन करता है। केवट प्रसंग भी ऐसा ही अनोखा प्रसंग है।
आपकी टिप्पणी से हर्षित हूँ, आभार।
एक अलग ही दुनिया में चले जाने जैसा लगा सुनते- सुनते…साझा करने के लिए आभार आपका
धन्यवाद!
शास्त्र से लेकर लोक तक फैले आख्यान की मूल चेतना-भाव-भंगिमा बेहद लौकिक है, इसे पढ़-मुन कर यह बात बखूबी जाहिर होती है। लोक से ही शास्त्र, बात और दृढ़ होती है।
इस प्रविष्टि के लिए हार्दिक आभार!
पुनः आना होगा, इस प्रविष्टि-रस में डूबने..
हम तो जोहते ही हैं बाट! आभार।
आँखें नम कर जाता है यह प्रकरण..
जी, और गुदगुदाता भी है। ग़ज़ब का संयोजन है कथाक्रम का भी और चरित्र-गुण का भी।
बेहतरीन पोस्ट! पिछली वाली भी नहीं पढ़ी थी।
जब केवट प्रसंग आता है तो न जाने क्यों मुझे तुलसी से अधिक प्रिय बावला लगते हैं। भोजपुरी में जितना सुंदर बावला जी ने केवट प्रसंग लिखा है वह अद्भुत है। अनुरोध है कि इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए अगली पोसट बावला जी पर लिखें।
मलहवा बाबा से मै नहीं मिल पाया लेकिन बनारस की गलियों में ऐसे मस्त फकीर पहले दिख जाया करते थे। हम उसकी अहमियत नहीं समझ पाते थे। बस मुग्ध भाव से सुनते और अपनी राह पकड़ चल देते। वे लोक गायन शैली में कितना कुछ समेटे होते थे अपने भीतर! और कितना कुछ दे रहे होते थे समाज को!! आजकल नहीं दिखते। जाने कैसे आप पकड़े हुए हैं! पिछली पोस्ट में रानी से मछुवारे और मलहवा की बात चीत काफी रोचक है। इनको सहेजने के लिए साधुवाद।
बावला जी की अनुभूति व अभिव्यक्ति तो समेटे नहीं सिमटती। सच कहा आपने। अद्भुत सँजोया है केवट प्रसंग को बावला जी ने। कोशिश करता हूँ, यदि लिख पाया।
खैर, बाबा तुलसी तो अद्भुत हैं। उनकी एक-एक पंक्ति बहुत कुछ निभाती चलती है। रामचरितमानस का एक-एक चरित्र गहन अवगाहन की माँग करता है। अनेको दृष्टियों से देखे जाने के बाद भी बहुत सारा अवकाश अभी भी है।
बिलकुल सही! बनारस की गलियों में तो प्रज्ञा ही बिखरी है, निरखने की जरूरत शेष है। हम सबके कस्बे/गाँवों में बहुधा इन फकीरों व घुमक्कड़ों का आना अयाचित आशीर्वाद सा लगता है मुझे। उसमें भी यदि गवैये मिल गए तो बात ही क्या। मलहवा बाबा तो मेरी संवेदना में समाये चरित्र हैं। उनके जीवन की कथा ज्यादा लुभाती है मुझे। मौका मिला तो एकाध और प्रविष्टियाँ बनती हैं इस अनोखे बाबा पर।
टिप्पणी का आभार।
रोचक है।’कैडर फ़ीलिंग’ है केवट में भी। वाह!
हाँ, है तो! पर मुँह छुपाने की चाल है, प्रेम के कुछ क्षण तक छलक न आने का भय कहवा रहा है उससे यह सब! धुरंधर प्रेमी है केवट।