एक नदी अविरल गति से बहती जा रही थी
इठलाती हुई, बलखाती हुई कुछ कहती जा रही थी
सबको मोह रही थी कल-कल पायल की झनकार से
खुश थी बहुत, न था उसे कोई कष्ट इस संसार से।
उसकी इस चंचल गति से ईर्ष्या हुई एक प्रस्तर-खण्ड को
राह में खड़े हो ठोकर लगायी उसने नदी के आत्मसम्मान-अखण्ड को
कहने लगा- “यह समाज पुरुष प्रधान है
नारी का स्वच्छन्द रहना हर पुरुष का अपमान है।”
नदी बेचारी ठहर गयी, थोड़ा-सा सकुचा गयी
परन्तु क्षण भर बाद उसमें और तीव्रता आ गयी
पार करके अवरोध को किया जोर से अट्ठहास-
“नारी की स्वच्छन्दता छीनने का अधिकार नहीं पुरुष के पास।”
मेरी इस मन्थर गति पर जो तू प्रतिबन्ध लगायेगा
वही प्रतिबन्ध अनजाने में मुझे दुगुनी गति दे जायेगा-
दुगुनी गति दे जायेगा।
अविरल गति: वीना सिंह
वीना सिंह एक सजग अध्येता हैं। कविताई में शुरु से ही रुचि। हाईस्कूल में थीं..तब से छिटपुट कवितायें लिखीं। बातों में कविता-सा अंदाज, सो कविताई भी बातों-सी। क्लिष्टता न मिले पर संष्लिष्टता मिलेगी। नियमित लेखन नहीं, पर लेखन की कारीगरी का पता है। खुद नदी हैं- अविरत प्रवहशील, प्रतिबन्ध से अनजान। फिलहाल वीना गृहस्थी की नाव में सवार हैं- परिवार-संग, प्रसन्नचित्त। लेखन का क्रम मन्थर ही सही, जारी है।
अति उत्तम
प्रतिबंध तो कोई भी सहन नहीं करता यह तो नदी है।…. सार्थक भाव।
प्रतिबंध ?लगा कर देखे कोई -टूट बिखरेंगे पत्थर ,बाढ़ उमड़ेगी चतुर्दिक्!
सच कहा, हर प्रतिबन्ध इच्छा दुगुनी कर जाता है..
हाँ, कभी मन्थर तो कभी वेगवती नदी।
हताशा पास न फटके तो…टिप्पणी का आभार।
सुंदर सार्थक उद्गार ….
और यह बाढ़ समेट लेगी न जाने क्या-क्या! टिप्पणी का आभार।
टिप्पणी का आभार।