Geetanjali: Rabindra Nath Tagore
Picture By: Samarjit Roy (Licensed: CC BY-NC-ND 2.5 IN) |
“Prisoner, tell me who was it that bound you?”
“It was my master”, said the prisoner. “I thought
I could outdo every body in the world in
wealth and power, and I amassed in my
own treasure-house the money due to my
king. When asleep overcome me I lay uopn
the bed that was for my lord, and on waking
up I found I was a prisoner in my own
treasure-house.”
“Prisoner, tell me, who was it that wrought this
unbreakable chain?”
“It was I,” said the prisoner, “who forged
this chain very carefully. I thought my
invincible power would hold the world captive
leaving me in a freedom undisturbed.
thus night and day I worked at the chain
with huge fires and cruel hard strokes.
When at last the work was done and the
links were complete and unbreakable, I
found that it held me in its grip.”
हिन्दी भावानुवाद: प्रेम नारायण पंकिल
“किसने तुमको कर दिया कैद, बन्दी क्यों यह बन्धन धारण?”
बोला, “प्रभु ने ही किया कैद स्वामी ही हैं बन्धन कारण।
सोचा धन से बल से कर सकता मैं परास्त सबको जग में
मैं नृपति कोष में धन पर धन संचित कर बढ़ता था मग में
सो गया स्वामी शैया पर ही जब हुआ अधिक निद्रा चारण-
बोला, प्रभु ने ही किया कैद स्वामी ही हैं बन्धन कारण॥1॥
जब जगा अरे निज कोषालय में ही मैं हाय हुआ बन्दी”
पूछा, “बन्दी किसने रच डाला यह बन्धन अभेद्य छन्दी?”
बोला कैदी, “हूँ ध्यानपूर्ण विरचता श्रृंखलायें क्षण-क्षण-
बोला, प्रभु ने ही किया कैद स्वामी ही हैं बन्धन कारण॥2॥
जग को वश में कर लेगा सोचा अहा अपरिमित बल मेरा
फिर मैं अबाध स्वातंत्र्य भूमि में सदा लगाऊँगा फेरा
बस अनल निर्मम प्रहरण से नित्य बढ़ाता रहा चरण-
बोला, प्रभु ने ही किया कैद स्वामी ही हैं बन्धन कारण॥3॥
अन्ततः कार्य जब हुआ पूर्ण थीं पूर्ण शृंखलायें विरची
प्रत्येक कड़ी गढ़ पूर्ण किया,एक भी अधूरी नहीं बची
तब पाया ’पंकिल’ बँधा उसी से स्वयं किया जिसका सर्जन”-
बोला, प्रभु ने ही किया कैद स्वामी ही हैं बन्धन कारण॥4॥
गीतांजलि के अन्य भावानुवाद:
एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, सोलह, सत्रह, अट्ठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाइस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताइस, अट्ठाईस, उन्तीस, तीस, इकतीस
अन्दर बैठा चारों ओर दीवार उठाता जाता मैं
वस्तुतः….’बँधा उसी से स्वयं किया जिसका सर्जन’। टिप्पणी का आभार।