छत पर झुक आयी तुम्हारी डालियों के बीच
देखता कितने स्वप्न
कितनी कोमल कल्पनाएँ
तुम्हारे वातायनों से मुझ पर आकृष्ट हुआ करतीं,
कितनी बार हुई थी वृष्टि
और मैं तुम्हारे पास खड़ा भींगता रहा
कितनी बार क्रुद्ध हुआ सूर्य
और मैं खड़ा रीझता रहा तुम्हारी छाया में
कितनी बार पतझर का दंश झेलकर भी
तुम हरित हुए नवीन जीवन चेतना का संदेश देने
और खिलखिला उठे
मेरे साथ अपने किसलय में
और न जाने कितनी बार आया सावन
जब अपनी ही डालों के झूले में
मेरे साथ झूलने लगे थे तुम –
पर अब तुम कहाँ हो मेरे वृक्ष ?
और आज जब तुम नहीं हो
तो वृष्टि भी यत्किंचित है
सूर्यातप भी मारक नहीं रहा
अब पतझड़ के पास भी नहीं रहा कोई योग्य पात्र
और जानते हो तुम ?
सावन भी अब सड़कों पर लडखडाया चला करता है ।
छिन्न भिन्न हो गए हैं स्वप्न
विलीन हो गयी हैं कल्पनाएँ
क्योंकि हृदय हो गया है वस्तु
और वस्तु उपयोगितावादी व वैकल्पिक होती है ।
ab tum kahaan ho mere vriksh
manav jati hi nahi poora jeev jagat vanaspti par hi aashrit hai, ismen do mat nahi hai.
ye bhi sach hai ki hame jitna aanand prakriti ke aanchal men milta hao wo any milna sambhav hi nahi hai . varsha , greeshm aur sharad har ritu men ped -poudhe hamaari kisi na kisi roop men hamen madad hi pahunchaate hain, lekin ham kitni berahmi se inhen samapt karne men vyast hain , ye ham sabhi jaante hain. aapki rachna padh kar anttah sandesh yahi jata hai
badhai
aapka
Dr. Vijay Tiwari ” Kislay ”
jabalpur mp
बहुत उम्दा और सार्थक रचना.
बहुत ही भावपूर्ण रचना. लिखते रहिये. धन्यवाद्.
और आज जब तुम नहीं हो
तो वृष्टि भी यत्किंचित है
सूर्यातप भी मारक नहीं रहा
अब पतझड़ के पास भी नहीं रहा कोई योग्य पात्र
और जानते हो तुम ?
सावन भी अब सड़कों पर लडखडाया चला करता है ।
बहुर सुंदर लिखा है….
व़क्ष को लेकर इतनी भाव भीनी रचना पहली बार पढी । बधाई ।
यह वस्तुकरण कितना घातक है !