नीरवता के सांध्य शिविर में
आकुलता के गहन रूप में
उर में बस जाया करते हो ।
बोलो प्रियतम क्यों रह रह कर याद मुझे आया करते हो ?
आज सृष्टि का प्रेय नहीं हिय में बसता है
मिले हाथ से हाथ यही जग का रिश्ता है
अब कौन कहाँ किसके दिल में बैठा करता है ,
पर तुम मानस के गहन निविड़ में
मधु सौरभ के सघन रूप में
आकर बह जाया करते हो –
बोलो प्रियतम क्यों रह रह कर याद मुझे आया करते हो ?
तार प्रीति के आज कहाँ जुड़ते हैं स्नेही
प्रेम–ज्योति के दीप कहाँ जलते हैं स्नेही
स्नेह समर्पित लोग कहाँ मिलते हैं स्नेही,
पर तुम जीवन की श्वांस रूप में
औ’ श्वांसों के लघु कम्पन में
आ कुछ कह जाया करते हो –
बोलो प्रियतम क्यों रह रह कर याद मुझे आया करते हो ?
bahut sunder rachana
वाह ! अतिसुन्दर………
आज जब अधिकांशतः हिन्दी के सुसंस्कृत शब्दों का अकाल सा पड़ा दीखता है हर ओर और उसमे भी अकविता के नाम पर बेढंगे गद्त्यात्मक काव्य लिखे जा रहे हैं,ऐसे सुंदर भावपूर्ण गीतों को पढ़ना अत्यन्त सुखद लगता है.
'' तार प्रीति के आज कहाँ जुड़ते हैं स्नेही
प्रेम-ज्योति के दीप कहाँ जलते हैं स्नेही
स्नेह समर्पित लोग कहाँ मिलते हैं स्नेही, ''
— ! ! !
सहमत ,,,