(Photo credit: MarianOne) |
आज फिर
एक चहकता हुआ दिन
गुमसुमायी सांझ में
परिवर्तित हो गया,
दिन का शोर
खामोशी में धुल गया,
रात दस्तक देने लगी।
हर रोज शायद यही होता है
फिर खास क्या है?
शायद यही, कि
मेरे बगल में
मर गया है मनुष्य – उसकी अन्त्येष्टि,
कुछ दूर लुट गयी लड़की- उसका सिसकना
और …. .अंधेरा।
मूल भाव तो अँधेरा ही हैं हिमांशु ,चहुँ और छाया घोर तमस -पर इसे चीर कर बाहर निकल आना ही जीना हैं !
काफ़ी अच्छी कविता है!
—
गुलाबी कोंपलें
चाँद, बादल और शाम
हिमाँशु, बहुत गहरे भाव हैं कविता में बहुत खूब…. रात के बाद ही तो सवेरा होता है
‘मृत्यु ‘एक सच है जो अंधेरे दे जाती है..मगर अंधेरों के पार रोशनी भी है.
क्या बतायें – यह धूप छांव बहुत देखते हैं जिन्दगी में आजकल!
दिन भर की थकान के बाद,
बिस्तर पर निश्चेष्ट पड़े हुए छत ताकती आखें !
नीद को अपने आप को सौपने से पहले
ली गयी
थकी हुयी
एक गहरी उसांस ………………!
अच्छी लगी कविता !
गहरी उदासी छोड़ गयी ,हिमांशु जी…
अपने लेवल से उपर कि बात है ।