BEHIND WHICH DOOR, (Photo credit: marc falardeau) |
गुजरता था मैं जब भी दरवाजे से
खुला रहता था वह,
खड़ा रहता था कोई
मेरी प्रतीक्षा में,
दरवाजे के भीतर से
एक मुस्कराहट चीरती भीड़ को
चली आती थी मेरे पास,
मैं अवश उस मुस्कुराहट से बँधा
रूप-मग्न चलता जाता था
अपने भीतर
एक उजास का अनुभव करते हुए।
उस समय मेरे मन की स्लेट पर
किसी चेहरे की लकीर होती
चेतना में निर्झर का संगीत होता
और दृष्टि में उसका सम्मोहन ।
गुजरता हूँ मैं अब भी दरवाजे से
खुला रहता है वह अब भी,पर
खड़ा नहीं रहता कोई
मेरी प्रतीक्षा में
अपनी मुस्कराहट के साथ ।
दिल में उठ जाती है कसक,
कसकने लगता है हृदय
हर उस चोट की तरह
जो सिहर उठती है
हर पूरबी हवा के झोंके से।
मेरी आँखों में सूनापन
आ कर ठहर गया है।
सोचता हूँ,
आज कोई होता भी
तो कैसे देख पाता उसे?
पहरा है मेरी आँखों के सामने
बहुत-सी आँखों का
लोग, सीमेंट और पत्थरों से
बनी दीवारों की तरह
हमारी आँखों के बीच आ खड़े हैं।
मैं अवश उस मुस्कुराहट से बँधा
रूप-मग्न चलता जाता था
अपने भीतर
एक उजास का अनुभव करते हुए।
-बहुत भावपूर्ण..सुन्दर शब्द शिल्प..बधाई.
दिल को छू लिया जी !
पहरा है मेरी आँखों के सामने
बहुत-सी आँखों का
लोग, सीमेंट और पत्थरों से
बनी दीवारों की तरह
हमारी आँखों के बीच आ खड़े हैं।
बहुत सुंदर!
गुजरता था और गुजरता हूँ के अन्तर को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं. बड़ी सुंदर रचना. आभार.
बहुत सुंदर रचना लिखी है….बधाई।
क्या बात है , दिल के तारो को छू गई आप की कविता.
धन्यवाद
थोडी अलग सी रचना !
बढिया है !
बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने …बधाई के पात्र है आप
अनिल कान्त
मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति