हमारे आर्य-साहित्य का जो प्रथम पुरुष है, अंग्रेजी का थर्ड पर्सन (Third Person), मैं उसकी तलाश में निकला हूँ। वह परम-पुरुष भी ‘सः’ ही है, ‘अहं’ या ‘त्वं’ नहीं। वर्तमान में देख रहा हूँ, फ़िजा ‘मत’ के आदान-प्रदान की है। समय की गजब करवट है। ‘मत’ को यदि उलट देते हैं तो ‘तम’ हो जाता है। ‘तम’ अर्थात अंधकार। उस मतदान की उलटवासी में देख रहा हूँ, तम ही इधर-उधर पल्टी मार रहा है। देने लेने वाले दोनों ही तमीचर कहे जाँय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
‘तम’ का गूढ़ार्थ ‘अहंकार’ भी है। मत की ख्वाहिश वाले अहंकार के ही पुतले बने आकाश-पाताल एक कर रहे हैं। ‘अह’ और ‘त्वं’ में ‘सः’ और ‘ते’ खो गया है। ‘गांधी’ का कथन कि ‘सबसे नीचे से शुरु करो’ कपोलकल्पित हो गया है। शेखचिल्ली की सनक और ढपोरशंखी का घोषणापत्र हमें कहीं का नहीं रहने दे रहा है। भारतः- भा-रतः (प्रकाशालय) अब ‘भारं तनोति इति’ (भार का आगार) बन गया है, या यों कहें बना दिया गया है। हम गिरे नहीं, गिराये गये हैं-
इस घर में आग लग गयी घर के चिराग से।
सोचता हूँ, कहाँ है हमारा प्रथम पुरुष जिसे थर्ड पर्सन बना दिया गया है। उसे चूमे बिना, पीछे घूमे बिना उसके देश का कल्याण नहीं है। काश, अपने उस प्रथम पुरुष ‘भारत भाग्य विधाता’ को हम पहचान पाते-
राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता
फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता।
‘दिनकर’ ने संकेत कर दिया है, और धकिया कर हमें भेंज दिया है वहीं-
आरती लिये तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में।
देवता कही सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में॥
मैं उसी प्रथम पुरुष का हिमायती हूँ।
विचार बहुत सम्यक लगे। विचारणीय, मननीय !
बिल्कुल सही कहा…..
हमें उनका मान करना चाहिए जो हमें मान करने लायक बनते हैं. वो लोग जो हमारे लिए अन्न उपजाते हैं, सर छुपाने के लिए घर बनते हैं और तन ढकने के लिए वस्त्र….
ऐसे “प्रथम-पुरूष” को मेरा भी प्रणाम….
अंकित
प्रथम
देवता कही सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में ॥”
दिनकर जी ने सही कहा सहमत है उनेक कहे से .सुंदर लेख लिखा है आपने इस पर
आहः आज छुट्टी का दिन सार्थक हुआ, मित्र !
मानस-भोज का पुख़्ता इंतज़ाम किया है, आपने आनन्दश्रॆष्ठ !
कठिन परिश्रम से तैयार की गयी है, यह रचना एवं तत्संबधित संदर्भ ..
आह्हः कई दिनों तक चख चख कर पढ़ने योग्य संदर्भ… धन्यवाद !
विचारणीय !
@ अनुनाद जी, अंकित व रंजना जी – धन्यवाद .
@ अमर जी, इन टिप्पणियों को पढ़कर मन खिल/खिलखिला जाता है. इन टिप्पणियों का सौन्दर्यशास्त्र कैसे निर्मित किया श्रीमन. जहां भी देखूं, यह टिप्पणियां बल खाती नौका की तरह लहराती-बलखाती दृष्ट हो जाती हैं. इनका बांकापन तो अपने में विशिष्ट है ही . यहां टिप्पणी के लिये धन्यवाद.
कहाँ है हमारा ‘प्रथम-पुरुश’ जिसे थर्ड पर्सन’ बना दिया गया है । उसे चूमे बिना, पीछे घूमे बिना उसके देश का कल्याण नहीं है । काश, अपने उस ‘प्रथम-पुरुष’ ‘भारत भाग्य विधाता’ को हम पहचान पाते””
और राजनेताओं का तुर्रा यह कि वे सब कुछ कतार में खडे अंतिम आदमी के लिए ही कर रहे हैं.
बिल्कुल सही कहा..
यह तो बहुत अच्छा पकड़ा आपने – प्रथम, थर्ड हो जाता है; सांस्कृतिक बदलाव में।
अत्यन्त सरल भाषा में आपने अत्यन्त उलझे हुए विषय को सुलझाया है इसके लिए आप नि:संदेह बधाई के पात्र हैं।
‘अह’ और ‘त्वं’ में ‘सः’ और ‘ते’ खो गया है ।
सबसे सटीक बात यही है !
शेखचिल्ली की सनक और ढपोरशंखी का घोषणापत्र हमें कहीं का नहीं रहने दे रहा है ।
क्या करे केवल सपने ही तो देखते है और वादे पे वादे करते रहते है !उससे भी मन नही भरा तो एक दुसरे की गलती निकालने लगते है ! जो भी है सब हरि की इक्षा है! नारायण हरि ….!
TABHI TO KAL TAK JO BHAINS CHARATE THE,AAJ DESH CHARATE HAIN.