तनिक पहचानें
उस शील को
जो डरता तो है
संसार की अनगिनत
अंधेरी राहों में चलते हुए
पर अपने मन में
और दूसरों की दृष्टि में
बनना चाहता है वीर
और इसलिये
गाने लगता है।
तनिक पहचानें
उस शील को
जो डरता तो है
संसार की अनगिनत
अंधेरी राहों में चलते हुए
पर अपने मन में
और दूसरों की दृष्टि में
बनना चाहता है वीर
और इसलिये
गाने लगता है।
बहुत ही सटीक रचना . आभार.
अहा अति सुन्दर
बहुत सुन्दर भाव !
बहुत बहुत सुंदर!
bahut sunder
sunder abhivyakti.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति….आभार
अति सुंदर …
गागर में सागर।
bahut khoob. himanshu ji.
ओह, शायद शील-सज्जनता में नैसर्गिक भीरुता है? नहीं?
बहुत कम पंक्तियों में काफी कुछ कह दिया आपने.. आभार
@ ज्ञानदत्त जी, शायद।
आपकी टिप्पणी ने इस कविता को सुन्दर के अलावा भी कुछ होने का एहसास दिया । धन्यवाद ।
बहुत लाजवाब भाव व्यक्त किये हैं आपने. शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत ही सुंदर भाव लिये है आप की यह कविता.
धन्यवाद
काश !!!!शील डरा हुआ ही रहता
तो न चलता अंधेरी राहों में!!!!
और तब दूसरे गाते गीत
उनके मन से
और “शील” बन जाता वीर
अपनी द्रष्टि में !!!!