Here is thy foot stool and there rest
thy feet where live the poorest,
and lowliest, and lost.
When I try to bow to thee, my obeisance
can not reach down to the depth
where thy feet rest among the poorest,
and lowliest, and lost.
Pride can never approach to where thou
walkest in the clothes of the humble
among the poorest, and lowliest, and lost.
My heart can never find its way to
where thou keepest company with
the companion less among the
poorest, the lowliest, and the lost.
जहाँ पतिततम महादीनतम संस्थित जन अज्ञात रे ।
चाह रहा नत होना तेरे सम्मुख करुणाधाम
लेकिन तुम तक पहुँच न पाता मेरा नाथ प्रणाम
उस गहराई में स्थित तेरे शरण सुखद पद तात रे –
जहाँ पतिततम महादीनतम संस्थित जन अज्ञात रे ।
वहाँ गर्व की कभीं न हो सकती गति दयानिधान
जहाँ भ्रमण तेरा उदारता का ओढ़े परिधान
दर्शित वहीं तुम्हारा सज्जित दया वसन से गात रे –
जहाँ पतिततम महादीनतम संस्थित जन अज्ञात रे ।
पा न कभीं सकता उर मेरा वह पथ गमन प्रवीण
असहायों के परम सहायक आप जहाँ आसीन
सुहृद रहित के सुहृद वहीं तुम ’पंकिल’ तिमिर प्रभात रे-
जहाँ पतिततम महादीनतम संस्थित जन अज्ञात रे ।
बहुत यादगार कविता और बहुत सुन्दर भावानुवाद आपके बाबू जी का!
धन्यवाद।
बहुत सुन्दर भावानुवाद
अद्भुत ! अद्भुत !! अंग्रेजी में पढ़ी थी … और बांग्ला में सुनी थी (बांग्ला समझ लेता हूँ) … हिंदी में ये भावानुवाद कमाल है. बेहतरीन पोस्ट.
बहुत समसामायिक। आभार।
गुरुदेव की इस कविता के लिए आपका और पंकिलजी का बहुत आभार..!!
आज भी इतना सुन्दर भावानुवाद..वाह..मन पुलकित हो उठा।
बहुत सुंदर आपके और बाबूजी के प्रयास को नमन.
रामराम.
सुंदर भावानुवाद। जितनी अच्छी गुरुदेव की रचना है, उतना ही अच्छा अनुवाद।