मुझसे मेरे अन्तःकरण का स्वत्व
गिरवी न रखा जा सकेगा
भले ही मेरे स्वप्न,
मेरी आकांक्षायें
सौंप दी जाँय किसी बधिक के हाँथों
कम से कम का-पुरुष तो न कहा जाउंगा
और न ऐसा दीप ही
जिसका अन्तर ही ज्योतिर्मय नहीं,
फिर भले ही
खुशियाँ अनन्त काल के लिये
सुला दी जायेंगी किसी काल कोठरी में,
या कि चेतना का अजस्र संगीत
मूक हो जायेगा निरन्तर,
या मन का मुकुर चूर-चूर हो जायेगा
क्षण-क्षण प्रहारों से
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा ।
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा । आप की ये पंक्तियां अन्तस्तल को छू गयीं ।
बहुत ही ओजस्वी और प्रेरणादायक. शुभकामनाएं.
रामराम.
अभीष्ट अच्छा है आप उसी राह पर चल सकें हिमांशु जी। शुभकामनाएं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
द्रढ़ निश्चय की राह पर अग्रसर ये रचना सुखद अनुभूति दे गयी …
regards
saadhu saadhu
jai ho !
संकल्प अत्यन्त कठोर है। पर अच्छा आदर्श है।
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा ।
यदि ठान लिजियेगा तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है।
बहुत ही भावपुर्ण …………ऐसी कविताये ऐसे ही नही निकलती यह अंतहकर्ण की पुकार लगती है ……….बहुत खुब
अत्यन्त सुन्दर
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा ।
जरूर चल सकेंगे कठिन मगर दुर्लभ नहीं शुभकामनायें
सुन्दर प्रेरणादायक कविता |
मुझसे मेरे अन्तःकरण का स्वत्व
गिरवी न रखा जा सकेगा | -> इसी जज्बे की जरुरत है आज के समय मैं |
khubsurat kavita
प्रण पर स्थिर रहो आर्य !
समर्पित साधना की यह राह आपको सुखदायी हो …शुभकामनायें ..!!
ओजस्वी और प्रेरणादायक
मैं समर्पित साधना की राह लूँगा
नियम-संयम से चलूँगा-
यदि चल सकूँगा ।
aameen…
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