सिमटती हुई श्रद्धा, पद-मर्दित विश्वास एवं क्षीण होते सत्याचरण वाले इस समाज के लिए सत्य हरिश्चन्द्र का चरित्र-अवगाहन प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी। ऐसे चरित्र दिग्भ्रमित मानवता के उत्थान का साक्षी बनकर, शाश्वत मूल्यों की थाती लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और पुकार उठते हैं- असतो मां सद्गमय। इस ब्लॉग पर करुणावतार बुद्ध नामक नाट्य-प्रविष्टियों के पश्चात् प्रस्तुत है अनुकरणीय चरित्र राजा हरिश्चन्द्र पर लिखी प्रविष्टियाँ। पिछली प्रविष्टि के पश्चात् आज दूसरी प्रविष्टि।
सत्य हरिश्चन्द्र
नारद: सदय हृदय, परोपकारी मन, धर्मव्रती किससे वंदनीय नहीं होते? उस राजा के धर्मविभव के आगे तुम्हारा नंदनवन, वनितादिक भोग, अक्षय क्रीड़ा-कल्लोल सब तुच्छ है, तृणवत है।
इन्द्र:(मन ही मन) भले ही राजा की स्वर्ग लेने की इच्छा न हो, किन्तु एक बार तो उसके सत्य की परीक्षा अवश्य लेंगे। नारद ने तो बड़ी बेचैनी पैदा कर दी। (प्रकट) क्या मुनिवर, हरिश्चन्द्र जो कह देते हैं, वह किसी को अवश्य दे देते हैं?
नारद: निःसन्देह। सत्य ही उसका गुरु है, प्राण प्रधान शिष्य। परोपकार ही संकल्प है। अस्मिता ही हवन है, आतिथ्य ही नित्य विष्णुयज्ञ है। सेवा परायणता ही दक्षिणा है। धर्म ही ध्वजारोहण है। सत्य रूपी सद्गुरु की चरणपादुका का जल ही उसका चरणामृत है। वह स्वयं अपने आप में तीर्थ है, तीर्थराज प्रयाग है। धर्मात्मा की जीवन शैली ही ऐसी होती है कि वह जीवन को आनंद और माधुर्य के साथ जी सके। देखो इन्द्र! आकाश में उड़ने के लिए केवल पंख ही आतुर नहीं हैं, आकाश स्वयं निमंत्रण देता है, पंछी आये और उन्मुक्त गगन में छलाँग लगाए। केवल प्यासा ही पानी पीने को तृष्णातुर नहीं है बल्कि नीर भी उतना ही आतुर है। प्यास दोनों में समान है। विराट पुरुष की ममतामयी बाहें सत्यनिष्ठ को बड़े ही मोद से झूला झुलाती हैं। इसलिए धन ही को सर्वस्व मत मान लेना। उससे भी सर्वोपरि बहुत कुछ है।
इन्द्र: मुझे विश्वास है आपकी बातों पर। राजा हरिश्चन्द्र का जीवन सत्य,दान और सद्भाव का कोष है। दूसरों के लिए उदाहरण बनने योग्य।
नारद: सुनो, “मनस्येकं वचस्येकं कर्ममेकं महात्मनाम्” ! सत्य से बढ़कर शरण कौन! हरिश्चन्द्र की प्रत्येक रुधिर की धड़कन में आप सुनेंगे -“सत्यं शरणं गच्छामि“। विष्णु उस संसार में अवतार लें या न लें लेकिन दुनिया में फिर-फिर हरिश्चन्द्र पैदा होना चाहिए। अब हमारा समय हुआ। चलते हैं। सुरपति! ईर्ष्यालु मत हो जाना। (प्रस्थान।)
(दरवाजे पर आहट, द्वारपाल का प्रवेश)
द्वारपाल: महाराज, गाधितनय विश्वामित्र जी पधारे हैं।
इन्द्र: (स्वगत) भले गए नारद। अब द्वितीय दृश्य को चरितार्थ करना है। (द्वारपाल से) ससम्मान ले आओ ब्रह्मर्षि को। हमें उनकी नितान्त आवश्यकता है।
(द्वारपाल जाता है। ऋषि विश्वामित्र प्रवेश करते हैं।)
इन्द्र:(शिष्टाचारोपरान्त) आइये प्रभु, आपका स्वागत है। हमारी उद्विग्नता का सम्यक निदान आप से ही सम्भव है। अन्यथा न लें। सेवक हूँ। धृष्टता क्षमा करने की कृपा करेंगे।
विश्वामित्र: देवपति! ऐसा न सोचें। आपने कुछ अन्यथा या अनाचरणीय नहीं किया है। देवर्षि की वीणा सुनायी पड़ी है। स्वभाववश उन्होंने ही तो उद्विग्न नहीं कर दिया है आपको?
इन्द्र: (विनत सिर) हाँ प्रभु! नारद आये थे। हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और दानशीलता का इतना बखान किया उन्होंने कि उच्चपदस्थ मैं आहत हो उठा। उन्होंने उनके सत्याचरण को आपकी तपस्या से गुरुतर बताया। कहा कि अखिल भुवन में हरिश्चन्द्र-सा दानी न था, न होगा। सभी विभवशाली जनों की सम्पदा, सभी तपोपूत ऋषियों की साधना, सभी कर्मयोगियों का कर्म हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा की तुलना नहीं कर सकते। मुझे अनर्गल प्रलाप लगा। सब सुनता तो रहा पर अंतर्द्वन्द्व से ग्रसित था कि क्या ऐसा संभव है! आप जैसा ऋषि जो दूसरी सृष्टि रच सकता है, जो ब्रह्मर्षि की गरिमा से संपन्न हो, वदंनीय वह है न कि वह नरपति जिसके यश का वर्णन करते नारद की वाणी नहीं थकती थी। आपके आने का आभास न मिल गया होता तो वे अभी न जाने कितना आकाश-पाताल एक करते। सहन नहीं हो रहा था ब्रह्मर्षि!
विश्वामित्र: (भृकुटी तन जाती है) हरिश्चन्द्र में कौन ऐसे गुण हैं जिनको नारद ने आपके आगे सराहा है? अयोध्या की राजकुल की वंशावली का हमें घट-घट पता है। सत्यान्वेषण, सत्य संपोषण हँसी ठट्ठा है क्या?
इन्द्र: ऋषिवर! सत्य की हरिश्चन्द्र सी मिसाल उनकी दृष्टि में धरा-धाम में कहीं है ही नहीं। वैसा सर्वगुणसम्पन्न राजा नारद की दृष्टि में किसी भी माता की कोख ने अभी तक नहीं जना है। कहाँ वह गृहासक्त वह राजा, कहाँ विरागी आप जैसे महात्मा! धर्म व्रत का, तप तितीक्षा का आपका गुण नारद के लिए अदृश्य था। भला राज्य निर्वहन करते और गृहकार्य में उलझे किसी मनुष्य के द्वारा धर्म का हथ निभ सकता है? कोई परीक्षा लेता तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाता!
विश्वामित्र: मैं अभी देखता हूँ देवराज! हरिश्चन्द्र की मिट्टी पलीद नहीं कर दी तो मेरा नाम विश्वामित्र नहीं। भूल गया वह कि उसी के तात त्रिशंकु को इस विश्वामित्र के तपोबल ने ही सदेह आकाश भेज दिया। मेरे सम्मुख तो आपने एक चुनौती रख दी। भला विश्वामित्र के सामने वह क्या सत्यवादी बनेगा! उसकी दानशीलता दुर्गति की किस सीमा तक पहुँचेगी, देखते रहना। यद्यपि हरिश्चन्द्र का मुझसे कोई व्यक्तिगत वैर नहीं है, किन्तु चाटुकारी की हद कर दी है नारद ने। परीक्षा करके ही मानूँगा।
(क्रोध पूर्वक उठकर चल देते हैं। पर्दा गिरता है।)
नारायण! नारायण! आग लगा गये मुनी नारद।:)
सुंदर भाषा शैली मुग्ध किये दे रही है। आगे के अंको को पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी।..बधाई।
आभार!
सुन्दर! ईर्ष्या क्या स्वर्ग की स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो देव और मुनि भी किसी की सत्यनिष्ठा से व्यथित हैं? (वैसे तो देवर्षि नारद भी देव ही हैं)
कथा को रोचक पक्ष, नारदीय उठापटक।
मुदित हुआ जा रहा हूँ।
लौटूँगा प्रभु, निरंतर रहिएगा।