ना ! क़तई नहीं ।
आदमी कभी जुदा-जुदा नहीं होते ।
आदमी सब एक जैसे होते हैं – एक ही होते हैं,
पूर्ण-सम्पूर्णतः — अन्दर के अन्दर, के अन्दर,
के अन्दर तक,
बाहर से अन्दर तक ।
आदमी सब आदमी होते हैं,
अपितु देवता होते हैं ।
’सर्वे भवन्तु सुखिनः’ पशु नहीं,आदमी ही
गाते हैं दिल से,
मनाते हैं दिल से ।
मगर क्या कीजियेगा – कीजियेगा क्या इन
गीताओं से, बाइबिल-कुरानों से’?
क्या कीजियेगा इन कबीरों से,
गान्धी, कैनेडियों से ?
गुडविल-मिशनों से ?
शिखर-सम्मेलनों से ?
हर बार —
नयी से नयी युक्तियों से रच कर
नये से नये शस्त्रों से सजकर
आये सब यहाँ ये, एक के बाद एक —
तोड़ने ध्वस्त करने । मगर … लेकिन….
हतभाग्य ! हाय — इसी कुरुक्षेत्र में
अपने प्रयासों में
मारे गये, खेत होके रह गये एक-एक कर
सारे अभिमन्यु वे ।
पहुँच तो गये वे उस अन्दर के अन्दर, के अन्दर,
के अन्दर, के अन्दर तक ।
मगर….लेकिन……
लौट नहीं पाये वे —
जिन्दा, सलामत ।
बड़ा दुर्धर्ष है यह चक्रव्यूह ।
आदमी हतभागा है ।
गाता है, पढ़ता है, सुनता है आदमी
गीता और बाइबिल -कुरान ।
–ऊँचे से, निष्ठा से, आँख मूँद
सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज…..
अरणं व्रज ।
ही दैट फॉलोअथ मी शैल नॉट वॉक इन डॉर्कनेस…
ऑक इन डॉर्कनेस !
ला इल्लाह लिल्लिलाह मुहम्मद रसूल लिल्लाह….
ऊल लिल्लाह ।
–करता रहा आदमी प्रतिध्वनि
अक्षरशः, ध्वनिशः हू-बहू —
रोज़–एक-एक बार, दो-दो बार, पाँच-पाँच बार ।
और वे तमाम पैगम्बर, मसीहे, योगीश्वर —
मरते रहे हैं एक-एक बार, दो-दो बार, पाँच-पाँच बार —
रोज़-हर रोज ।
रोज़-हर रोज़ —
आदमी पराजित है
एक बार, दो बार, पाँच बार ।
चक्रव्यूह तो और भी दुर्धर्ष होता जा रहा है …
अभिमन्यु तो आज भी … अकेला … वीरोचित, पर छला हुआ …
उपस्थिति तो शाश्त्र और शश्त्रों की है साथ-साथ …
किन्तु मारा जाता है …
प्रतिदिन …आज भी …
हर मन में क्षण-क्षण …
सुन्दर रचना … …
मनुष्य हारा जरूर है मगर जीजिविषा नहीं !
अरविन्द मिश्रा जी से सहमत हूँ धन्यवाद्
बहुत सुंदर कहा आप ने,चक्रव्यूह तो और भी दुर्धर्ष होता जा रहा है ..ओर मनुष्य रुपी अभिमन्यू फ़ंसता जा रहा है उस चक्र्व्यूह मै..
धन्यवाद
दिलचस्प, भाषिक बेफिक्री, अनुभवों की सांद्रता।
आजकल ब्लॉगरी की कविताई में लम्बी का फैशन है 😉
आभार इस रचना को सामने लाने के लिए।
बुद्ध वाली श्रृंखला अभी तक (लगभग) अपठित रखी है. पता नहीं क्यों लगा की उसे आराम से पढना चाहिए. फुर्सत ढूंढ़ रहा हूँ उसके लिए. सोच रहा हूँ एक साथ ही पढूंगा अब तो. आभार इस रचना को पढवाने के लिए.
आदमी के अन्दर के अन्दर के अंदर जो है ….वही अंतिम सत्य ही तो आखिर उजागर होना है …हाँ …इससे पहले कई अभिमंयुओं को चक्रव्यूह के भीतर जाकर तोडना होगा व्यूह रचना को ….ये अभिमन्यु पारजित तो होगा मगर फिर से उठ खड़ा होगा …जितनी बार पराजित होगा उतनी ही दृढ़ता से खड़ा भी होगा …इसी विश्वास पर चल रहा है भावी सुन्दरतम दुनिया का स्वप्न ….
उम्दा!! वाह! सही है!
१.अचानक से फलक विस्तृत…अभी थोड़ा और गूंथना था…वैसे 'सब कुछ' से 'कुछ' अलग कहाँ है पर फिर भी..
२. आदमी मान लेता है कि वह महज individual है तो मन से हारा हुआ महसूसता है..!
३. एक तरह से हम अभिमन्यु से भी गए-गुजरे हैं..उसे तो कुछ द्वारों का भेदना, उनका सच स्पष्ट ज्ञात था…..इस तरह से हमारी चुनौतियाँ ज्यादा विकट हैं..और प्रासंगिकता तो साथ-साथ चलती ही है..
४. राव साहब ईर्ष्या ना करें..:)
५. हिमांशु भाई; क्या कविता समाप्त हो गयी है..?..इसे थोड़ा "जारी" रखें…अभी तो कई उत्तर मिलने हैं…!!!
सुन्दर प्रस्तुति..
@ श्रीश पाठक प्रखर ,
नहीं भाई, कविता जारी है .. लिखना भूल गया । आभार ।
अति सुन्दर अर्थपुर्ण अभिव्यक्ती के लिऎ आपका आभार!
मुन्नाभाई सर्किट की ब्लोग चर्चा