रस भिजये दोऊ दुहुँनि, तऊ टिक रहे टरै न ।
छवि सों छिरकत प्रेम-रँग, भरि पिचकारी नैन ॥१॥
पीठ दिऐं ही नैक मुरि, कर घूँघट-पट टारि ।
भरि गुलाल की मूठि सों, गई मूठि सी मारि ॥२॥
गिरै कंपि कछु, कछु रहै, कर पसीज लपटाय ।
डारत मुठी गुलाल की, छुटत झूठी ह्वै जाय ॥३॥
दियौ जु पिय लखि चखन में, खेलत फागु खियाल ।
बाढ़त हू अति पीर सु, न काढ़त बनत गुलाल ॥४॥
(राग सारंग)
मोहन हो-हो, हो-हो होरी ।
काल्ह हमारे आँगन गारी दै आयौ, सो को री ॥
अब क्यों दुर बैठे जसुदा ढिंग, निकसो कुंजबिहारी ।
उमँगि-उमँगि आई गोकुल की , वे सब भई धन बारी ॥
तबहिं लला ललकारि निकारे, रूप सुधा की प्यासी ।
लपट गईं घनस्याम लाल सों, चमकि-चमकि चपला सी ॥
काजर दै भजि भार भरु वाके, हँसि-हँसि ब्रज की नारी ।
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥१॥
फागुन लाग्यौ सखि जब तें, तब तें ब्रजमंडल धूम मच्यौ है ।
नारि नवेली बचै नहीं एक, विसेष इहैं सबै प्रेम अँच्यौ है ॥
साँझ-सकारे कही रसखान सुरंग गुलाल लै खेल रच्यौ है ।
को सजनी निलजी न भई, अरु कौन भटू जिहिं मान बच्यौ है ॥२॥
गोरी बाल थोरी वैस, लाल पै गुलाल मूठि –
तानि कै चपल चली आनँद-उठान सों ।
वाँए पानि घूँघट की गहनि चहनि ओट,
चोटन करति अति तीखे नैन-बान सों ॥
कोटि दामिनीन के दलन दलि-मलि पाँय,
दाय जीत आई, झुंडमिली है सयान सों ।
मीड़िवे के लेखे कर-मीडिवौई हाथ लग्यौ,
सो न लगी हाथ, रहे सकुचि सुखान सों ॥३॥
खेलत फाग सुहाग भरी, अनुरागहिं लालन क धरि कै ।
भारत कुंकुम, केसर की पिचकारिन में रंग को भरि कै ॥
गेरत लाल गुलाल लली, मनमोहन मौज मिटा करि कै ।
जात चली रसखान अली, मदमस्त मनी मन कों हरि कै ॥४॥
चौरासी समान, कटि किंकिनी बिराजत है,
साँकर ज्यों पग जुग घूँघरू बनाइ है ।
दौरी बे सँभार, उर-अंचल उघरि गयौ,
उच्च कुच-कुंभ, मनु चाचरि मचाई है ॥
लालन गुपाल, घोरि केसर कौ रंग लाल,
भरि पिचकारी मुँह ओर कों चलाई है ।
सेनापति धायौ मत्त काम कौ गयंद जानि,
चोप करि चंपै, मानों चरखी छुटाइ है ॥१॥
नवल किसोरी भोरी केसर ते गोरी, छैल-
होरी में रही है मद जोबन के छकि कै ।
चंपे कैसौ ओज, अति उन्नत उरोज पीन,
जाके बोझ खीन कटि जाति है लचकि कै ॥
लाल है चलायौ, ललचाइ ललना कों देखि,
उघरारौ उर, उरबसी ओर तकि कै ।
’सेनापति’ सोभा कौ समूह कैसे कह्यौ जात,
रह्यौ हौ गुलाल अनुराग सों झलकि कै ॥२॥
तब न सिधारी साथ, मीड़त है अब हाथ,
सेनापति जदुनाथ बिना दुख ए सहैं ।
चलैं मनोरंजन के, अंजन की भूली सुधि,
मंजन की कहा, उनहीं के गूँथे केस हैं ॥
बिछुरैं गुपाल, लागै फागुन कराल तातें –
भई है बेहाल, अति मैले तन भेस हैं ।
फूल्यौ है रसाल, सो तौ भयौ उर साल,
सखी डार न गुलाल, प्यारे लाल परदेस हैं ॥३॥
केसर सुरंग हू के रंग में रंगौगी आजु,
और गुरु लोगन की लाज कों पहेलिवौ ।
गाइवौ-बजाइवौ जू, नाँचिवौ-नँचाइवौ जू,
रस वस ह्वैके हम सब विधि झेलिवौ ॥
’ठाकुर’ कहत बाल, होनी तौ करौंगी सब,
एक अनहोनी कहो कौन विधि ठेलिवौ ।
कर कुच पेलिवौ, गरे में भुजि मेलिवौ जू,
ऐसी होरी खेलिवौ जू, हम तौ न खेलिवौ ॥१॥
ठाढ़ी रहो, डगो न भगो, अब देखो जो है कछु खेलत ख्यालहिं ।
गावन दै री, बजावन दै सखी, आवन दै इतैं नंद के लालहिं ॥
’ठाकुर’ हौं रँगिहौं रँग सों अंग, ओड़ि हौं बीर ! अबीर गुलालहिं ।
धूंधर में, धधकी में, धमार में, धसिहौं अरु धरि लैहौं गोपालहिं ॥२॥
प्रात झुकाझुकी भेष छपाय कै, लै गगरी जल कों डगरी ती ।
जानी गई न कितेकऊ वार तें, आन जुरे, जहाँ होरी धरी ती ॥
’ठाकुर’ दौरि परे मोहिं देखत, भाग बची सु कछु सुघरी ती ।
बीर ! जो दौरि किंवार न देउँ री, तौ हुरिहारन हाथ परी ती ॥ ३॥
बहुत ही बढ़िया लगी पोस्ट , आपको होली की बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकानायें ।
आपकी मेहनत और लगन को सलाम। बड़ा अलबेला संकलन है। एम.एस.वर्ड की फाइल बनाकर सहेजता हूँ।
आपको होली की ढेरों शुभकामनाएं।
संकलन काफी अच्छा रहा बधाई |
बहुत अच्छा । बहुत सुंदर प्रयास है। जारी रखिये ।
हिंदी को आप जैसे ब्लागरों की ही जरूरत है ।
अगर आप हिंदी साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें जैसे उपन्यास, कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह, निबंध इत्यादि डाउनलोड करना चाहते है तो कृपया इस ब्लॉग पर पधारें । इसका पता है :
http://Kitabghar.tk
सुन्दर पोस्ट । होली की शु्भकामनायें ।
आज की पोस्ट बहुत ही सुंदर लगी. होली की आप ओर आप के परिवार को बहुत बहुत बधाई
बहुत उम्दा संकलन!!
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
दियौ जु पिय लखि चखन में, खेलत फागु खियाल ।
बाढ़त हू अति पीर सु, न काढ़त बनत गुलाल ….
शुभ होली..
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥
———– ई सब तो होली के अंधड़ में ही हो सकत है !
रसखान जी का 'आनंद – उठान' देख रहा हूँ !
.
..फिर लौट कर आऊंगा , दोस्त का आग्रह आ गया होलिहारी के खातिर सो
रवाना हो रहा हूँ …………..
,,,,,, होली की ढेर सारी शुभकामनाएं ,,,,,,,,,
ati umda sankalan……….aabhar.
holi ki hardik badhayi.
बहुत अच्छा लगा हिमांशु जी| सेनापति जी की बसंत के सन्दर्भ में कभी पढ़ी गयी एक पंक्ति याद रह गयी है "आधे सुलगि अनसुलगि रहे आधे मानो बिरही दहन काम क्वैला परिचाये हैं|" अगर पूरा आपको याद हो तो बताइयेगा|
अमित जी,
टिप्पणी का आभार। पूरा छन्द यूँ रहा-
"लाल-लाल टेसू फूलि रहे हैं बिसाल, संग
स्याम रंग भेंटि मानौं मसि में मिलाए हैं।
तहाँ मधु काज आस बैठे मधुकर-पुंज
मलय पवन उपवन-वन धाए हैं।।
'सेनापति' माधव महीना मैं पलास तरु,
देखि देखि भाउ कविता के मन आए हैं।
आधे अन-सुलगि, सुलगि रहे आधे,मानों-
बिरही दहन काम क्वैला परचाए है।।"
संकलन तो अच्छा हैं, लेकिन अपने स्कूल के दिन याद आ गए….:) 🙂 और वो हिंदी के मास्साब 🙂
KLKH