जॉन डन (John Donne) की कविता ’द कैनोनाइजेशन’ (The Canonization) का भावानुवाद
परमेश्वर के लिये मौन अपनी रसना रहने दो
मुझे प्रेम करने दो केवल मुझे प्रेम करने दो ।
लकवा गठिया-सी मेरी गति को चाहे धिक्कारो
या मेरा खल्वाट भाल मेरा दुर्भाग्य निहारो
बनी रहो तुम पर समृद्धिमय विलसे बुद्धि कलामय
नित्य प्रगतिमय रहो तुम्हारा रहे स्थान गरिमामय
प्रेम करे सम्मानित तुमको करे गौरवान्वित नित
अथवा मग्न रहो अनुचिन्तन कर मुख चुम्बन विजड़ित
जैसा चाहो वैसे ही भावों से मन भरने दो
मुझे प्रेम करने दो केवल मुझे प्रेम करने दो ।
कौन हो गया घायल मेरे झेल प्रेम के फेरे
किस व्यवसायी की नौका डूबी आहों से मेरे
मेरे आंसू की धारा से किसकी बही धरा है
कब मम उर उष्मा से रोगी हो प्लेगार्त मरा है
सेनानी रण खोज खोज कर निरत युद्ध में नित हैं
न्यायिक खोज रहा नित उसको जो जन दोषान्वित हैं
नहीं कहीं संघर्ष, प्रेम फिर हममें से झरने दो
मुझे प्रेम करने दो केवल मुझे प्रेम करने दो ।
कोई दे दो नाम हमें जो भी तेरा मन चाहे
वैसी ही तो विरच गयी है हमें प्रेम की बाहें
कहो उसे मधुमाखी मैं हूँ एक अपर मधुमाखी
दीपशिखा हम ज्वलित बुझेंगे साथ प्राण की साखी
ईगल डोव चील बतखी सम एक एक में डूबे
फोयनिक्स पौराणिक खग के पूर्ण यही मंसूबे
(बिना युग्म के उसी रूप में होता पुनः प्रकट है
जग में एकमात्र यह खग जब आती मृत्यु निकट है)
मिलित एक लिंगी, मृत जीवित यह रहस्य धरने दो
मुझे प्रेम करने दो केवल मुझे प्रेम करने दो ।
मर सकते हम इसमें, इसमें भले नहीं जी पाये
यदि समाधि स्मारक गाथा कोई न हमें मिल पाये
फिर भी गीतों बीच सुसज्जित होगा प्रेम हमारा
भले शान्ति इतिहास ग्रंथ-सम हो न सिद्ध बेचारा
किन्तु चतुर्दशपदी बीच में इसका पद स्थापित है
यही महत्तम राख, न आधी भी समाधि पूजित है
इन मंत्रों से सर्वसिद्ध बन सन्त प्रेम ढरने दो
हमें प्रेम करने दो, केवल हमें प्रेम करने दो ।
पुनः पुकारेंगे हमको सम्मानित स्वर में सारे
शीश झुकायेंगे आ पावन प्रेम कुटी के द्वारे
कभीं तुम्हें था प्रेम शान्ति, पर आज वही पीड़ा है
अखिल विश्व के आत्माकर्षण की करती क्रीड़ा है
सबकी आत्मा खिंच तेरे दृग-दर्पण बीच समाई
प्रेम प्रतीक सदृश खोजी इसकी स्मृति जग में छाई
देश नगर नृप माँग रहे यह प्रीति रीति चरने दो
हमें प्रेम करने दो केवल हमें प्रेम करने दो ।
Donne की यह कविता मूल रूप में यहाँ मौजूद है : The Canonization By Donne
वाह…पिछली कविता के मौन प्रेम को यूँ मुखरित होते देखना,अच्छा लगा…
प्रेम रस से सराबोर कविता का बहुत ही अच्छा भावानुवाद…..
अब तो वह कविता भी ढूंढ कर पढनी पड़ेगी…
उत्कृष्ट भावानुवाद
साधुवाद
बहुत सुन्दर रचना -भावानुवाद का निर्वाह भी विलक्षण तरीके हुआ है .
मगर जो पश्चिमी मिथकीय बिम्ब आये हैं भावबोध में बड़ा उत्पन्न करते हैं
मूल कविता भी पढ़ी अनुवाद भी पढ़ा लेकिन अच्छे से समझ नहीं पाया …कविता के बारे में टिप्पणी करने से पहले और पढ़ना पड़ेगा.
उपस्थित ।
ओह गजब का भाव दिखा इस कविता ।
बहुत सुन्दर अनुवाद है धन्यवाद
इस भावानुवाद ने तो एक अलग रचना की इयता-महता प्राप्त कर ली है. आपके दिए लिंक्स मूल अनुवाद पढ़ आया हूँ. यह एक बेहद प्रसिद्द रचना है. जान डन की प्रसिद्धि में इस कविता का सबसे बड़ा योगदान है.
आपने अनुवाद से इस रचना के और भी पट खोल दिए हैं. कई बार मुझे लगा कि इस कविता का आपने भारतीय संस्कार भी उपयुक्त कर दिया है. किसी कवि के ह्रदय-प्रदेश में इतनी मुक्त आवा-जाही यूँ ही सहज संभव नहीं है. आपने निश्चित ही अपने उत्कृष्ट प्रयास किये हैं. मेरा फायदा तो दो तरह से हुआ..इस कविता को वैसे भी पढना चाहता था..सो मूल भी पढ़ लिया..और इसके समान्तर एक दूसरा "मूल" भी पढ़ लिया. एक नए दिन की शुरुआत के लिए और क्या चाहिए इतर..!
बेहतरीन…!
पढने में बड़ा मजा आया .. क्लासिक रंग दिखा .. बहुत सुन्दर ..
मूल तो नहीं पढ़ सका — आंग्ल-अज्ञता के चलते ! , इसलिए भावानुवाद
कैसा और कितना ठीक है , इस पर कुछ नहीं बोलना ही ठीक होगा … आभार !
उम्दा अनुवाद है. बधाई स्वीकारें.
अनुवाद बहुत अच्छा लगा…..
अति सुंदर, हिमांशु भाई.
ati sundar.
हिमांशू भाई बहुत सुंदर रचना
शुक्रिया इस बेहतरीन अनुवाद के लिए
"The Canonization" तो नहीं पढ़ी लेकिन "मुझे प्रेम करने दो केवल मुझे प्रेम करने दो" पूरी पढ़ी". आपके शब्दकोष का भंडार काबिले तारीफ एवं वन्दनीय है. निम्न पंक्तियाँ अति विशिष्ट लगीं:
"ईगल डोव चील बतखी सम एक एक में डूबे
फोयनिक्स पौराणिक खग के पूर्ण यही मंसूबे
(बिना युग्म के उसी रूप में होता पुनः प्रकट है
जग में एकमात्र यह खग जब आती मृत्यु निकट है)
मिलित एक लिंगी, मृत जीवित यह रहस्य धरने दो"
धन्यवाद्
बहुत सुन्दर रचना का इतना बेहतरीन भावानुवाद पढ़वाने के लिये साधुवाद्।
आज सिर्फ़ nice कहने की इच्छा है,सुमन जी से साभार्।
हमें प्रेम करने दो केवल हमें प्रेम करने दो…..
अत्युत्कृष्ट भावानुवाद!! बोधगम्यता के विषय में मैं अरविन्द जी से सहमत हूँ. शेष मूल कविता पढ़कर ही कह सकती हूँ.
मेरी हिंदी इतनी अच्छी नहीं है पर इस रचना को पढने के बाद लगा कि शायद मुझे और पढना चाहिये. बहुत अच्छा और समय उपयुक्त !! बधाई मेरे भाई …
गिरिजेश जी से सहमत..:):)
उत्तम…. अति उत्तम…!
behtareen
अमूमन अनुवादित रचनायें पढ़ने से खुद को वंचित ही रखता है। बड़ा ही स्टुपिड-सा तर्क है इसके पीछे कि अपनी हिंदी में इतना कुछ शेष है पढ़ने को तो पहले उसे तो पढ़ लूं। बड़े दिनों से इधर आ नहीं पा रहा था, तो कुछ फुरस्त निकाल कर आया हूं। शीर्षक ने बरबस मन खींचा है और इसे अनुवादित न मान कर ्पढ़ गया…विदेशी बिम्ब यकी्नन तनिक उलझाते हैं। पिछले सफ़ों पर जा रहा हूँ जो छूट गये थे।
याद रहते हुए भी आना संभव न हुआ..दुख है…जाने कितने दिनों का पढना है लेकिन इत्मीनान से पढ़ते रहेंगे… सौन्दर्य लहरी के मुक्त छंद मंत्रमुग्ध कर गए…. एक नज़र में पढ़ना नहीं होता..दुबारा बार बार आना होगा… शुभकामनाएँ