ऋग्वेद के दसवें मण्डल के मंत्रों (सूक्त ३०-३४) का रचयिता कवष ऐलुष को माना जाता है। कवष ऐलुष जन्मना शूद्र थे, दासी माँ के बेटे, परन्तु अपनी प्रखर मेधा, अतुल अध्ययन एवं अनुकरणीय आचरण के कारण उन्हें आचार्यत्व प्राप्त हुआ। ऐतरेय ब्राह्मण (२-१९) में वर्णित यह कथा कवष ऐलुष के विशिष्ट चरित्र को उद्घाटित करती है व सहज ही ब्राह्मणत्व पद को अतुलित विस्तार दे देती है।

सरस्वती तट का सोम महायाग। ऋषियों, तपस्वियों, यज्ञ पुरोहितों और यजमानों का पवित्र संगम। संकल्प प्रारंभ ही हुआ था कि एक ऋषि आसन से उठ खड़े हुए और गंभीर स्वर में बोले “यह कवष ऐलुष ब्राह्मण नहीं, अब्राह्मण है। इस दासी पुत्र को सोम का अधिकार कैसे प्राप्त होगा।”
कवष ऐलुष दासी माँ का पुत्र था, किन्तु उसके अस्तित्व का श्रेय एक ब्राह्मण को था, वह नियम-संयम पूर्वक ज्ञान एवं तप में संलग्न था, तब वह अनधिकारी क्यों?
किन्तु ऋषियों ने उसके जन्म पर ध्यान दिया कर्म पर नहीं। वे एक स्वर से बोले, “यह चोर है इसे दीक्षा न प्राप्त होगी।”
समस्त ऋषिगण उठे और कवष ऐलुष को मंडप से हटाकर दूर मरुभूमि की ओर ले गए। वे एक स्वर से बोले, “तुम मरुभूमि में तृषित हो भले ही मर जाओ, किन्तु तुम्हें सरस्वती का जल पीने की अनुमति नहीं मिलेगी।”
अगले ही क्षण कवष ऐलुष तप्त मरुभूमि में एकाकी खड़ा था। उसका शरीर अपमान से काँप रहा था, किन्तु मन निर्वात दीप शिखा-सा अचल था। उसने उन्मीलित नेत्रों से सर्वात्मा को पुकारा, “आज ब्राह्मणत्व की परीक्षा है देव! ब्राह्मण का निर्णय जन्म करेगा अथवा कर्म, आप ही सिद्ध कीजिए।”
क्षण  मात्र में तपस्वी कवष ऐलुष की आत्मा प्रकाश से भर उठी। उसे दिव्यता की प्रखर अनुभूति हुई और वह समाधिस्थ  हो गया। उसकी प्रभामयी तपस्या के सुवास से समस्त वातावरण सुरभित हो उठा। सद्ब्राह्मण के लिए देवता दौड़ आते हैं। कलकल वाहिनी पुण्य सलिला सरस्वती भी अपने तपस्वी पुत्र को भेंटने के लिए उमग उठी। उसने अपना मार्ग परिवर्तित किया और कवष ऐलुष के तपस्या स्थल की परिक्रमा कर डाली। परिक्रमा करने के कारण उसकी संज्ञा ही परिसारक हो गयी।
ऋषियों ने देवताओं द्वारा निर्णीत कवष ऐलुष को आदर सहित आमंत्रित किया। वे उस सच्चे ब्राह्मण को स्वीकार करने पर विवश हुए। 
>>भारती (भवन की पत्रिका), जून १९६५  से साभार।