डायोजिनीज़ (Diogenes) के जीवन से जुड़ा यह प्रेरक प्रसंग शान्तचित्त रहने के अभ्यास को रेखांकित करता है।
मनुष्य का स्वभाव है, प्रत्येक परिस्थिति एवं कार्य के प्रति अपनी धारणा बनाना। अभाव में भी स्वभाव न छूटता है। विपन्नता में भी मन विनय की डोर नहीं पकड़ता है। प्रतिक्रिया उसका स्वभाव है।
वह व्यक्ति जो संसार की, मन की इसी पकड़ से छूटना चाहता है, निस्पृह जीवन के अनन्य अभ्यासों में स्वयं को खपा देता है। फिर वह हर परिस्थिति के लिए तैयार होता है, विनम्र होकर। हर प्रतिक्रिया का सहज स्वीकार उसका हेतु होता है।
डायोजिनीज़ (Diogenes) का शान्तचित्त रहने का अभ्यास
यूनान का एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता डायोजिनीज़ (Diogenes), जो कि सुकरात का शिष्य था, अपना जीवन एक माँद में ही बिता लेता था। वह अपने रहने के लिए घर बनाना आवश्यक नहीं समझता था।
एक बार किसी युवक ने उसे देर तक एक पत्थर की मूर्ति से भीख माँगते देखा। उस युवक ने पूछा – “डायोजिनीज़! भला पत्थर की मूर्ति से तुम क्यों भीख माँगते हो? क्या वह तुमको भीख दे देगी?”
डायोजिनीज़ ने उत्तर दिया, “मैं इस मूर्ति से भीख माँगकर किसी पुरुष से भीख न देने पर शान्तचित्त रहने का अभ्यास कर रहा हूँ।”