अभिव्यक्ति, मनुष्य का नैसर्गिक गुण, जिससे हमारे विचार, हमारी भावनायें और हमारे अनुभव प्रकट होते हैं। कला, संगीत, साहित्य एवं संभाषण जैसे अनेकों माध्यम हमारी अभिव्यक्ति को आकार देते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अंग है। इससे हमारी अंतरात्मा का स्वर बाहर की दुनिया से एकमेक होता है। मैं सोचता हूँ कितना असर है अभिव्यक्ति का हमारे मन पर, हमारे प्राणों पर। इसका असर प्राणों पर ऐसे ही है जैसे मनुष्य का दर्पण पर। दर्पण को हारकर हमारा प्रतिबिम्ब देना ही पड़ता है।

बहुत पहले मनुष्य की अभिव्यक्ति पर पहरे थे। विश्वभर में इस पहरेदारी के विरुद्ध हमने क्रांतियाँ कीं।पश्चिम से शुरू हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत पूर्व में भी छा गई। हर एक संविधान तक में, हमारे संविधान में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार व्याप्त कर दिए गए। हर जगह कहा जाने लगा वह सब कुछ, जो मन में आया। इस अभिव्यक्ति के ने शब्दों को नवीन गति, नई तीव्रता दी।

निरंकुश अभिव्यक्ति की ओर

पर हमने ख़याल नहीं किया कि बोलने का स्वातन्त्र्य धीरे धीरे निरंकुशता की ओर गया। पश्चिम में तो बहुत पहले, कुछ वर्षों से हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या क्या नहीं हुआ है। बोलने की आज़ादी ने मर्यादाओं का शील भंग कर दिया है, समाज का संस्कार ठुकरा दिया है। यह स्वातंत्र्य न जाने कितनी मुक्तियों और न जाने कितने आंदोलनों के नाम हो गया। याद क्या करें, क्या-क्या करें। नारी देह की छद्म अभिव्यक्ति, देवी देवताओं के नग्न चित्र, वर्जनाओं को मुखर अभिव्यक्ति देते चलचित्र और फ़िल्में, अनियंत्रित भावना से उपजी महापुरुषों के लिए असंयत वाणी- सब हमारे सम्मुख है।

पश्चिम की अंतश्चेतना मन को नहीं जानती, प्राण को भी नहीं जानती। इसलिए वहाँ अभिव्यक्ति निरंकुश हो जाय, तो आश्चर्य क्या! पश्चिम हर क्रिया की प्रतिक्रिया देता है, हर दोषारोपण की काट करता है, हर झूठ का स्पष्टीकरण देता है। उसे लगता है झूठ साफ़ हो जाएगा। पश्चिम को लगता है झूठ के पैर नहीं होते। सच है, पर झूठ के पास वीर्य होता है। इस वीर्य से प्राण गर्भित हो जाता है और झूठ प्राणवंत।

अभिव्यक्ति, वाणी जब निरंकुश हो जाती है तो वह सारे संयम तोड़कर जनसाधारण के प्राणों से बलात्कार करती है –

प्राण एक निर्वस्त्र, असहाय कुमारी कन्या की तरह है। वाणी पुरुषों का हुजूम है, जिन्हें प्रजातंत्र में इजाज़त है। जो चाहे बर्ताव प्राणों से करें। वे प्राण कुमारी से बलात्कार करते हैं और प्राण रोज़ उसके शब्दों से गर्भित होते हैं, और उसी के बच्चे पैदा करते हैं, जिनमे तानाकशी और झूठ तो वाणी का होता है और सारा बदन प्राणों का।

निर्मल कुमार- ‘ऋत: साइकोलॉजी बियांड फ़्रायड’

इसलिए केवल अभिव्यक्ति, केवल बोलना सत्य नहीं रच सकता। अकेला तो प्राण भी सत्य नहीं रच सकता। जो सत्य है वह इसी प्राण और अभिव्यक्ति के संसर्ग से जन्म लेता है।