कितना सुंदर है
ब्रश करती तुम्हारी अंगुलियों का कांपना
कभी सीधे,
कभी ऊपर-नीचे
कभी धीमी कभी तेज गति से
जैसे थिरकता है मुसाफिर
किसी पहाड़ी राह पर।
कितना अनोखा है वह स्पर्श
जिसमें दो मिल जाएं तो दूर हो
गंध भी, मैल भी।
ब्रश ने कितना ढाल लिया है खुद को
तुम्हारे ढंग में
और रंग गया है
तुम्हारी अंगुलियों के रंग में
कि गर वो कहें कि रुको
तो रुक जाए,
कहें चलो तो चल पड़े,
और कहें इतराओ
तो अपनी मौज में हर ऊंची – नीची गली हो आए।
अंगुलियां तो वक्त की मानिंद
जिद अपनी उठाए
ब्रश अपना खिलौने-सा
सभी कुछ मान जाए
मैल तो बस रोज की उन आदतों की ही तरह है
हम तनिक भी सो रहे,
आकर वहीं डेरा जमाए
और मुंह की गंध
वैसी ही कि जैसी वासना अपनी
जहां भी मैल आए, गंध आए
ठीक वैसे ही
कि जैसे सोच अपनी
बुरी होकर आदतें बेकार लाए।
सुनो! मुझ पर यह करो उपकार
आंखे बन्द कर लो
चूमने दो सुबह ही
इन प्रेम के सहकार होठों को
जिन्होंने बांध रखा है सहज ही वासना को-
मैल को भी, गंध को भी।
कितना सुंदर है ब्रश करती तुम्हारी अंगुलियों का कांपना।
बहुत खूब।
Very beautiful poem.