[डॉ० कार्ल गुस्ताव युंग (Carl Gustav Jung) का यह आलेख मूल रूप में तो पढ़ने का अवसर नहीं मिला, पर लगभग पचास साल पहले ’भारती’ (भवन की पत्रिका) में इस आलेख का हिन्दी रूपांतर प्रकाशित हुआ था, जिसे अपने पिताजी की संग्रहित किताबों-पत्रिकाओं को उलटते-पलटते मैंने पाया। आधुनिक मनुष्य कौन?- प्रश्न को सम्यक विचारता यह आलेख सदैव प्रासंगिक जान पड़ा मुझे। भारती (भवन की पत्रिका) के १५ नवम्बर १९६४ के अंक से साभार यह आलेख प्रस्तुत है। अनुवाद ’ऐन्द्रिला’ का है। अनुवादक और पत्रिका दोनों का आभार। प्रस्तुत है पिछली प्रविष्टि का शेषभाग -]
आधुनिक मनुष्य कौन? – डॉ० कार्ल गुस्ताव युंग
मैं जानता हूँ कि कुशलता का विचार तथाकथित आधुनिकों को विशेष रूप से अरुचिकर होता है, क्योंकि वह उन्हें बहुत ही दुखद तरीके से उनकी प्रवंचनाओं और पाखण्डों की याद दिलाता है। पर इसी कारण हम इस चीज को आधुनिक मनुष्य का निर्णायक माप-दण्ड बनाने से बाधित नहीं हो सकते। बल्कि हम ऐसा करने को बाध्य होते हैं, क्योंकि यदि वह कुशल और पुख्ता नहीं है, तो जो मनुष्य आधुनिकता का दावा करता है वह एक स्वच्छन्दाचारी जुआरी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसे उच्चतम कक्षा का कुशल व्यक्ति होना चाहिए क्योंकि यदि वह अपनी सृजनात्मक क्षमता द्वारा परम्परा से सम्बन्ध-विच्छेद से उत्पन्न क्षति की पूर्ति करने में समर्थ न हो, तो वह भूतकाल के प्रति निपट बेईमान ही कहा जा सकेगा। यह निरी बाज़ीगरी होगी कि भूतकाल के इनकार को और वर्तमान चेतना को एक ही वस्तु के रूप में देखें। ’आज’, ’विगत कल’ और ’आगामी कल’ के बीच खड़ा है, और वह भूत और भविष्य के बीच की संयोजक कड़ी का निर्माण करता है; उसका और कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं है। वर्तमान संक्रान्ति की प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है, और वही व्यक्ति अपने को आधुनिक कह सकता है, जो इस अर्थ में उसके बारे में सचेतन है।
कई लोग अपने को आधुनिक कहते हैं, खासकर वे लोग जो तथाकथित आधुनिक है, कहिए कि नक़ली आधुनिक हैं। इसी से प्रायः सच्चा आधुनिक मनुष्य उन लोगों के बीच पाया जाता है, जो अपने को पुरातनवादी कहते हैं। पर्याप्त कारणों से ही वह इस स्थिति को स्वीकार करता है। एक ओर वह इसलिए भूतकाल का आग्रह रखता है, क्योंकि उसे परम्परा से उसके सम्बन्ध-विच्छेद के दौरान एक समतुला साधनी होती है, दूसरे उसके मन पर अपराध का एक भार रहता है, जिसका उल्लेख पहले हो चुका है। दूसरी ओर छद्म आधुनिक कहे जाने से वह बचना चाहता है।
प्रत्येक सद्गुण का एक बुरा पक्ष भी होता है, और कोई भी अच्छी वस्तु, एक प्रत्यक्ष समानान्तर बुराई पैदा किए बिना जगत में नहीं आ सकती। यह एक दुखद तथ्य है। फिर यह एक खतरा भी है कि वर्तमान की सचेतनता भ्रान्ति पर आधारित एक उन्नयन के आवेश की ओर भी ले जा सकती है; भ्रान्ति यह होती है कि हम मानव जाति के इतिहास का चरम उत्कर्ष हैं, हम अनगिनत शताब्दियों की परिपूर्ति और परम निष्पत्ति हैं। यदि हम इस बात को स्वीकृति देते हैं तो हमें समझना चाहिए कि यह हमारी निराश्रयता की एक साभिमान स्वीकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है: हम युग-युगान्तरों की आशाओं और प्रत्याशाओं की निष्फलता भी हैं। विचार करिए की दो हज़ार वर्षों तक क्रिश्चियन आदर्शों की प्रतिष्ठा होने के बाद भी मसीहा क्राइस्ट लौटकर नहीं आया और न स्वर्ग का राज्य आया, बल्कि उसके दौरान , उसकी पराकाष्ठा पर आया, क्रिश्चियन राष्ट्रों के बीच विश्व युद्ध, उसके कटीले तारों के घेरे और जहरीली गैसें। स्वर्ग और पृथ्वी पर यह कैसा दुःखान्तिक दृश्य है।
इस भीषण चित्र के सम्मुख हमें फिर से विनम्र हो जाना चाहिए। यह सच है कि आधुनिक मनुष्य एक चरम कोटि है, चरम प्रतिफलन है, पर आने वाले कल वह भी अतिक्रान्त हो जायेगा। बेशक वह युगान्तरव्यापी विकास की चरम निष्पत्ति है, पर साथ ही वह मानव जाति की आशाओं की निकृष्टतम कल्पनीय निराशा और विफलता भी है। आधुनिक मनुष्य इस बात से अवगत है। उसने देखा जाना है कि विज्ञान, तकनालॉजी और संगठन कितने कल्याणकारी हैं, पर वह यह भी जानता है वे कितने दुःखान्तक भी हो सकते हैं। उसने यह भी देखा है कि सदाशयी सरकारों ने – ’शान्तिकाल में युद्ध की तैयारी करो!’ – वाले सिद्धान्त के आधार पर, इतनी अच्छी तरह शान्ति का मार्ग निर्माण किया है कि यूरप लगभग छिन्न-भिन्न हो गया है। और जहाँ तक आदर्शों की बात है, क्रिश्चियन चर्च, मानवों का भाईचारा, अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक प्रजातंत्र और आर्थिक प्रयोजनों का संघटन आदि सारी ही आदर्श प्रवृत्तियाँ सत्य की अग्निपरीक्षा में विफल हो चुकी हैं। आज दो-दो भीषण महायुद्धों से गुज़रने के बाद, हम फिर से वही आशावाद, वही संगठन, वही राजनीतिक अभीप्सायें, वही बड़े-बड़े शब्द और सदुक्तियाँ पनपती देख रहे हैं। क्या हमारा यह भय स्वाभाविक ही नहीं है, कि ये सारी प्रवृत्तियाँ, फिर से दुःखान्तक परिणाम में ही विफल हो सकती हैं। युद्ध को अवैध बना देने की सारी सन्धियों के बावजूद हम सन्दिग्ध ही बने रहते हैं, जबकि हम हृदय से उनके लिए सम्पूर्ण सफलता चाहते हैं। ऐसे हर कल्याणकारी प्रयत्न के पीछे, उसके तल में एक सन्देह का काँटा खटकता रहता है। कुल मिलाकर मैं मानता हूँ कि यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि आधुनिक मनुष्य मनोविज्ञानतः एक प्राणहारी आघात से पीड़ित है और उसके परिणामस्वरूप वह अनिश्चय की स्थिति में पड़ गया है। इस अनिश्चय की अभेद्य अन्ध कुहा के भीतर से निश्चय की नयी चेतना भूमिका का जो आविष्कार करेगा, वही सच्चे अर्थों में ’आधुनिक मनुष्य’ कहा जा सकेगा।
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