प्रेम पत्रों का प्रेमपूर्ण काव्यानुवाद: तीन
A close capture of hand written love letters. |
तुम शायद झुंझला जाते हो!
कर ही क्या सकती हूँ छोड़ इसे हे प्राणाधिक बतलाओ ना
जाने भी दो कृपा करो अब रोष मुझे दिखलाओ ना
‘कसक रह गयी मन में ‘ बात सही ही कह दी तुमने
क्या करती? तब होश कहाँ था? बाँध लिया था तेरी सुधि ने;
तुम आकर सम्मुख नयनों के, मौन मुझे सिखला जाते हो –
तुम शायद झुंझला जाते हो!
जो कभी किसी को नहीं किया मेरी खातिर वह कर बैठे
मैं हुई प्रफुल्लित, किसी अकिंचन को मिलता है वर जैसे
यह अमूल्य उपहार, कहाँ मैं इसका मोल चुका पाउंगी
हो विभोर इस नियति खेल पर रोउंगी, फ़िर मुस्काउंगी;
अपनी अतुल प्रेम राशि से, प्रिय मन को नहला जाते हो –
तुम शायद झुंझला जाते हो!
मैं बात कहाँ वह कह पाती हूँ जिसकी मन में रहती चाह
सिर्फ़ सोचती रह जाती हूँ, नहीं खोज पाती हूँ राह
मेरे मन के सभी भाव तो आंखों से ही पढ़ लेते हो
‘क्या कहनाहै,क्या सुनना है,शब्द मूर्तियाँ गढ़ लेते हो;
‘अभिव्यंजन का प्राण हृदय में’, यह मुझको बतला जाते हो-
तुम शायद झुंझला जाते हो!
यह उजले कागज़ पर जो तुमने कुछ फूल उगाये हैं
इनकी सुरभि-सुधा से ही तो प्राण अभी तक जी पाए हैं
सूख गए यदि फूल , नहीं मिल पायेगा फ़िर त्राण
कभी ऐसा मत करना प्राण! नहीं तो मिट जायेगा प्राण;
तुम अनजान विरह की बातें, कह मुझको दहला जाते हो-
तुम शायद झुंझला जाते हो!
विचारों का अभूतपूर्व पल्लवन आपने इस रचना में किया है |
यह तो प्रेम की गंभीर पाती है |
मन मोहने के लिए धन्यवाद
बहुत उम्दा काव्यानुवाद किया है-लय एवं प्रवाहपूर्ण. बधाई.
सुन्दर !
nice…
bahut khoob.. ab se naya prayatn ko bhi padha karenge
बहुत सुन्दर है मित्र!
अति सुंदर
सुंदर अभिव्यक्ति. कविताओं के लिए अलग व्यवस्था उचित है. आभार.
“यह उजले कागज़ पर जो तुमने कुछ फूल उगाये हैं
इनकी सुरभि-सुधा से ही तो प्राण अभी तक जी पाए हैं”
मन को छू गया !!!!!!