प्रश्न स्वयं का उत्तर अपना
औरों से पूछा,
अपने मधु का स्वाद
लुटेरे भौरों से पूछा।
जाना जहाँ जहाँ से आया
याद नहीं वह घर,
माटी का ही रहा घरौंदा
रचता जीवन भर-
भोज-रसास्वादन कूकर के
कौरों से पूछा।
मूर्च्छा ही है पाप, जान भी
मूंदे रहा नयन,
जड़ सूखी रह गयी
पत्र पर छिड़क रहा जलकण –
जग में सही ग़लत का ब्यौरा
बौरों से पूछा।
झिलमिल प्राणों में न बांसुरी
बजी न हुई पुलक,
क्या जीना जीवन में उसकी
मिलीं न कभी झलक –
होश कहाँ है, बेहोशी के
दौरों से पूछा।
जिंदगी ने जवाब देना ही छोड़ दिया है , किससे तलब करें |
सुंदर रचना |
पाण्डेय जी, ये रचना ‘उत्तर अपना औरों से पूछा’ ये निराशाजनक क्यों है.. कविता तो अच्छे से बन पडी है, पर लगता है, कि एक आशावादी पुट दे देते अंत में तो रस और बढ़ जाता…
अच्छा लिख रहे हैं..जारी रखें.. और हाँ.. आशावादी लिखें.. दुःख की बातें न सोचें न ही करें..
हिमांशु जी आपकी कविता का मर्म जहाँ तक मुझे समझ आता है वो है की मनुष्य स्वयं की अपनी पहचान के लिए दूसरों से पूछता रहता है. उसे ख़ुद के वजूद का पता ही नही. हम स्वयं की आत्मा से परिचित नही हो पाते और ना ही अपने स्वरुप को जान पातें है और सारा जीवन यूँ ही निकल जाता है ऐसे जीवन का क्या फायदा? ज़रूरत है स्वयं के अन्दर झाकने की …ख़ुद के स्वरुप को जानने की …. सुंदर कविता..
अपने मधु का स्वाद
लुटेरे भौरों से पूछा
वाह वाह वाह, बहुत ही बढ़िया /आप पुनः हमारे ब्लॉग पर आमंत्रित है
wonderful creation……