एक कागज़
तुम्हारे दस्तख़त का
मैंने चुरा लिया था,
मैंने देखा कि
उस दस्तख़त में
तुम्हारा पूरा अक्स है।
दस्तख़त का वह कागज़
मेरे सारे जीवन की लेखनी का
परिणाम बन गया।
मैंने देखा कि
अक्षरों के मोड़ों में
जिंदगी के मोड़ मिले,
कुछ सीधी सपाट लकीरें थीं
कहने के लिए कि
सब कुछ ऐसा ही सपाट, सीधा है
तुम्हारे बिना।
मुझे एक ख़त लिखना
गर हो सके,
क्योंकि वह तो ख़त नहीं,
दस्तख़त था।
कुछ सीधी सपाट लकीरें थीं
कहने के लिए कि
सब कुछ ऐसा ही सपाट, सीधा है
तुम्हारे बिना ।…… एक दम से …… कुछ कहने कुछ सुनने के लिये…
सही कहते हो भाई, बहुत सुंदर कविता लिखी आप ने.
धन्यवाद
बढियां हैं
. कभी-कभी लगता है कि मैं एक प्याज़ हूँ और आप कविता के बहाने मुझे एक-एक कर छीले दे रहे हैं. 🙂
ख़त-दस्तखत माजरा क्या है.
माँ का लाडला बिगड़ गया, क्या !!
like blog name, definately
अब हो सके तो खत लिखना
क्यूं कि यह तो दस्तखत था
क्या बात है ।
मुझे एक ख़त लिखना
गर हो सके,
क्योंकि वह तो ख़त नहीं,
दस्तख़त था ।
बहुत बढ़िया बात लिखी आपने …..बहुत अच्छी कविता