कल मेरे पास के घर की वृद्धा माँ को वृद्धाश्रम (Old-age Home) भेंज दिया गया। याद आ गया कुछ माह पहले का अपना वृद्धाश्रम-भ्रमण। गया था यूँ ही टहलते-टहलते अपने जोधपुर प्रवास के दौरान। सोचा था देवालय जैसा होगा। आँखें फटी रह गयीं। वृद्धाश्रम के सरंक्षक श्री अग्रवाल जी ने सुविधाएं जुटाने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी थी। खेल का सरजाम था, पुस्तकालय-वाचनालय था, भ्रमण-वाटिका थी, सर्वधर्म की देव-प्रतिमाएँ थीं, सुस्वादु भोजन की थाली थी, और भी बहुत कुछ। सुभाव और स्वभाव की लेनी-देनी थी। किंतु एक अभाव की भांग पूरे कूएं में पडी थी। वास में ही उपवास था। हास में भी बैठा उपहास मुँह बिरा रहा था। सुन्दरता के वस्त्र में मुझसे अदृश्य नही रह सका असुन्दरता का पैबंद।
मुझे चाट थी कि परिपक्वता का साक्षात्कार होगा, पर दिखाई दी प्रेम की, नेह की, रागात्मकता की कपाल क्रिया। सब की किसी न किसी रूप से अपनत्व की पोटली खो गयी थी। एक व्यक्ति ऐसा मिला जिसको उसका पुत्र लक्जरी कार में बैठा कर लाया था, मुड़ा और छोड़ गया। कहा, पैसा भर सकते हैं, परवरिश नहीं कर सकते। एक की आंसू भरी आँखें बोल रही थीं- “कोई मुझे माँ कह देता!” एक ने कान से सट कर कहा-“लकुटी थमा दो, भीड़ में भी अकेलापन लगता है”।
यह वृद्धालय कौन सी बला है?
अनाथालय तो समझ में आता है, यह वृद्धालय कौन सी बला है? “नित्यं वृद्धोपसेविनः” की आत्मीयता को लकवा क्यों मार गया? यहाँ सुघराई की दुहाई तो सुनी, पर वैसे ही “ज्यों खगेश जल की चिकनाई”। याद आयी वह बात –
“O,Beauty, find thyself in love, not in the flattery of the mirror.”
सब है यहाँ, किंतु वही ढाई आखर विदा हो गया। पिता-पुत्र के बीच का, पति-पत्नी के बीच का, सेवक-स्वामी के बीच का, शिक्षक-शिक्षार्थी के बीच का वही ढाई अक्षर- ‘प्रेम’-खो गया है। यों ही कबीर ने नहीं कह दिया होगा-
ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय।
मैं तब और तिलमिला गया, जब एक वृद्ध ने कहा- “यहाँ आने के पहले तीन मंजिले घर में ऊपर एक जगह अकेले छोड़ दिया गया जीव था। सीढियां चढ़ते-उतरते समय बच्चों के शरीर से शरीर छू जाता था, लेकिन कोई मुझसे बोलता नहीं था।” अरे यह तो पशुता का नंगा नाच है। वे पशु बिचारे इतने रागी तो अवश्य होते हैं कि वध के लिए उठे हाथ को भी चाटने लगते हैं। किंतु आदमी से आदमी की यह बेरुखी? मेरा मन कहता है, लौट आए वह दिन जब प्रेम की फुलवारी खिलेगी। मेरा ‘अहं’, मेरा ‘मैं’ जीवन में ममत्व की चासनी में पग जायेगा। स्वार्थ का रोग परार्थ के राग में मिट जायेगा। क्या कहूं –
अपने भीड़ भरे आँगन में,
नरकट खड़ा अकेला।
क्योंकि किसी ने नहीं प्रीति-घट
उस पर हाय उड़ेला।
क्या कहना पड़ेगा कि दुनिया को सुधारने से पहले हम अपना सुधार कर लें। घर में दिया जलाएं, कोई मन्दिर कभी फ़िर खोज लेंगे। स्वजन-सौहार्द्र को पसरने दें। निरापद पंथ है यही कि नेह की माला न टूटे। बाकी गली आगे मुड़ती है।
He who wants to do good knocks at the gate, he who loves finds the gate open.
वाकई में बड़ी ह्रदय विदारक बात और समस्या है, और ये रोग बड़ता जा रहा है।
मन मैला और तन को धोये, फूल समझ कर काँटे बोये
ये भविष्य का एक स्थायी भाव होने वाला है ! मान को मार कर तैयार हो जाईये !
कुछ समझ में नहीं आ रहा है अपनी प्रतिक्रिया कैसे व्यक्त करूँ. हमारी भी यही स्थिति होने वाली है.
ham to kutte ki janjir pakad kar unko ghumane me garv ka anubhav karte hain parents ka hath pakad kar docter ke pass le jate hame sharm aati hai.narayan narayan
वृद्धाश्रम ये कैसे जगह है जहाँ आपना परिवार नही …भावुक कर गया आपका ये लेख , यूँ लग रहा है वृद्ध होना एक आपराध हो गया….आह!
regards
बड़ा अच्छा लेख लिखा है आपने.
सचमुच बधाई के पात्र हैं इतना अच्छा जो लिखा!
बहुत मार्मिक लिखा है, पर अब हल भी तो ढूँढें – इससे पहले कि अपना नम्बर भी लग जाए!