मेरे एक मित्र सामान्य ज्ञान के धुरंधर पंडित हैं। वे विविध प्रकार की सूचनायें एकत्र करने के लिये पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं आदि को पढ़ते रहते हैं। वे रेडियो तथा टी0वी0 आदि द्वारा अपनी जानकारी का भण्डार समृद्ध करने में लगे रहते हैं। उनको चैन नहीं मिलता। उन्हें सूचना संग्रह की कला मालूम है, लेकिन वे जीवन कला में शून्य हैं। मैं सोचता हूँ, ऐसे सामान्य ज्ञान से क्या लाभ?
मैने देखा है कि अधिकांश सामान्य-ज्ञानी अपने दिमाग को नाना प्रकार की सूचनाओं एवं विविध स्रोतों से एकत्र सामान्य ज्ञान को ठूंस-ठूंस कर मस्तिष्क में भरते रहते हैं। वे उसके माध्यम से न तो सत्यानुभूति करते हैं, और न उसके अनुसार जीवन को ढालते हैं। वे विद्वान होने का गर्व कर सकते हैं, परंतु उनकी विद्वता किसी काम की नहीं होती है। वे न स्वयं के योग्य होते हैं और न उस समाज के योग्य, जिसमें वे रहते हैं।
पीठ पर पुस्तकों का बोझ लादे हुए घूमते रहना कौन सा ज्ञान है! विद्वान बन जाना और उपदेश देना एक बात है, ज्ञान की अनुभूति करना और उसके अनुसार आचरण करना सर्वथा भिन्न बात है। ‘शेक्सपियर’ ने एक स्थान पर लिखा है,
“यदि सामान्य ज्ञान का संग्रह ही सब कुछ होता तो समस्त कुटीर राजप्रासाद बन गये होते तथा वर्णित ज्ञान का सुख-साम्राज्य सर्वत्र स्थापित हो गया होता … मैं बीस व्यक्तियों को बता सकता हूँ कि श्रेष्ठ एवं उपयोगी क्या है, परंतु तदनुसार आचरण करने वाले बीस व्यक्तियों में स्वयं एक नहीं हो सकता हूँ।”
सामान्य ज्ञान की सार्थकता
वास्तविकता तो यह है कि समस्त प्राप्त सामान्य ज्ञान की सार्थकता यह है कि वह हमें सांसारिक दृष्टि से चतुर बनाने की अपेक्षा संसार को चतुराई से जानने की क्षमता प्रदान करे।
मेरे मित्र जो सामान्य ज्ञान की लिखित परीक्षा में उच्च स्तर के अंक प्राप्त कर लेते हैं किन्तु साक्षात्कार के लिये उपस्थित होते समय व्यवहार ज्ञान से शून्य होते हैं। व्याख्यान तो बढ़िया दे लेते हैं पर वे ‘खुद मियां फ़जीहत, दीगरा नसीहत’ की कोटि के हैं।
अतः स्पष्टतः मेरी धारणा है कि ज्ञान जीवन के लिये हो, ज्ञान ज्ञान के लिये नहीं। ‘पुस्तकी भवति पंडितः’ का पोंगापंथी स्वभाव छूट ही जाय तो अच्छा। अध्ययन पद्धति स्वतःस्फूर्त ज्ञान को जन्म दे। सामान्य ज्ञान मस्तिष्क में निवास करता है। विलियम कूपर ने माना है कि ज्ञान अथवा सत्य की अनुभूति मन में होती है जो स्वयं के विचारों की देन होती है।
‘जीवन में ‘सामान्य ज्ञान’ ‘सम्बोधि ज्ञान’ बन जाय, शुद्ध ज्ञान बन जाय तो बनना हुआ, जानना हुआ। स्मरण रहे कि सामान्य ज्ञान पुस्तकों में सोता रहता है परंतु ज्ञान सर्वत्र सजग और सचेत बना रहता है।’
जानकारी वाले नहीं, हम ज्ञाता बनें।
जी हाँ हिमांशु ऐसे पर उपदेश कुशल बहुतरे से मुझे भी झेलना पड़ता है !
हिमांशु जी लगता है बहुत प्यार हो गया है अपने मित्र से…:)
हमे भी कई बार दो चार हथ होना पडता है.
धन्यवाद
सही है …. वैसे ज्ञान का क्या फायदा … जिससे लोग न सजग और सचेत रहें …. और न ही दूसरों को सजग और सचेत रहना सिखाएं ।
हम सब जानते है अच्छा क्या है बुरा क्या है पर उसे व्यवहार में नहीं उतारते …कही पढ़ा था की ज्ञान को उपयोग में करना ही उसका असली अर्थ है
मैं सोचता हूँ, ऐसे सामान्य ज्ञान से क्या लाभ ?
इसमें सोचने की क्या बात है , निश्चित तौर पर कोई लाभ नहीं | वैसे कुछ दोष तो व्यवस्था का भी है ! आज बहुत सारी ऎसी चीजो को ज्ञान कहा जाता है जिन्हें वस्तुत: कचरा कहा जाना चाहिए !
सही विचार है, जो ज्ञान उपयोग में ही न आ सके, ऐसे ज्ञान का क्या फायदा।
सही विचार है….