मैं तो निकल पड़ा हूँ
सुन्न एकांत-से मन के साथ
जो प्रारब्ध के वातायनों से झाँक-झाँक
मान-अपमान, ठाँव-कुठाँव, प्राप्ति-अप्राप्ति से
आविष्ट जीवन को निरखता है …
निकला तो अबेर से हूँ
क्योंकि मन के उद्वेग के साथ
अनुभव का ऊहापोह भी था,
विछोह की अश्रु बूँद पलकों पर
झिलमिला रही थी,
और जाने-अनजाने
एक अकिंचन भावना थी,
जो मुझे बाँध रही थी ….
पर,
तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य ने
गन्धोच्छ्वासित लीक दी,
मिलन के उत्ताप में
विछोह के अश्रु सूख गये,
तुम्हारे अंक की पुलक अभीप्सा ने
रोम-रोम पुलकित कर दिये …
मैं निकल पड़ा ।
कैसे कहूँ तुमसे
कि साँझ पक्षी-कलरव की लोरी से
दुलरा चुकी है अंधकार को
(और संझा-सकारे डर लगता रहा है मुझे),
परिमल-सुवासित हवा यौवन के पैरों को
ठहरा दे रही है बार-बार (मैं कैसे चलूँ ),
और पथ का प्रदीप विराग-राग गा रहा है ….
तुम आओ ना !
मुझे अपने घर ले चलो ।
तुम आओ ना !
मुझे अपने घर ले चलो '
प्रारब्ध का उद्वेग, अबेर से निकलने का उहापोह और अंततोगत्वा लीक का मिलना.
वाह क्या बिम्ब और भाव दिये है
विराग राग या विहाग राग या राग राग?
क्या रचते हो भाई! अद्भुत।
गीतांजलि की पंक्तियाँ याद हो आईं
On the day the lotus bloomed
My mind was straying and knew it not.
लेकिन यहाँ तो मन एकदम जानकार है। सत्तू गुड़ बाँध कर तैयार !
लेकिन अदा तो देखिए – तुम आओ ना, मुझे अपने घर ले चलो!
वियोग से संयोग तक की अकुलाहट मुखर है !
देर तक टिपण्णी के लिए शब्द तलाशती रही …अद्भुत से ज्यादा लिखने जितना शब्द ज्ञान है ही नहीं …अज्ञातवास की धुन्ध हटने से जो ऐसा निखार है कविता पर…फिर तो यही सही है …देर आये दुरुस्त आये ..!!!
nice
तुम आओ ना …
अनुपम!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
as always the magic of words keeps the reader spell bound
hinashu good work keep it up
कोई आए, न आए बंधु,
प्रातः भ्रमण तो हो ही गया आपका।
और आपके एक एक शब्द को अगर प्रकृति-सम्बोधित मानूं तो
यह प्रकृति चिंतन ही कहलाएगा।
बहुत खूब…
बहुत सशक्त, शुभकामनाएं.
रामराम.
तुम आओ ना !
मुझे अपने घर ले चलो
बहुत ही सुन्दर रचना, शुभकामनाओं सहित आभार ।
अद्भुत शब्द प्रयोग और गज़ब के भाव…कमाल की रचना…बधाई..
नीरज
yatra ki tarah chala…. accha laga..
हिमांशु जी एक रिक्वेस्ट है इतने तत्सम शब्द न प्रयोग में लाया करें, डिक्शनरी की जरूरत पडती है।
वैसे कविता तो आपने बहुत सुंदर लिखी है। बधाई।
——————
और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।
पर,
तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य ने
गन्धोच्छ्वासित लीक दी,
मिलन के उत्ताप में
विछोह के अश्रु सूख गये,
तुम्हारे अंक की पुलक अभीप्सा ने
रोम-रोम पुलकित कर दिये …
मैं निकल पड़ा ।
पढा !
वाह ! कौन से 'वाद' में रखें इसे ? अद्भुत !
आपके ब्लौग पर आते ही शब्दों को लेकर अपनी दरिद्रता का इतना तीव्र अहसास होता है कि क्या कहूँ, हिमांशु जी!
कविता, निहित भाव-पक्ष उअर हमेशा की तरह शब्द-सौन्दर्य….आह!
बड़े दिनों बाद "अबेर" शब्द का प्रयोग देखा है कहीं।
You write so well.I am full of envy and inspiration.