जिन्दगी ज़हीन हो गयी
मृत्यु अर्थहीन हो गयी ।

रूप बिंध गया अरूप-सा
सृष्टि दृश्यहीन हो गयी ।

भाव का अभाव घुल गया
भावना तल्लीन हो गयी ।

टूट गयी सहज बाँसुरी
व्यथा तलफत मीन हो गयी ।

बाँध लूँ किसे, बँधू कहाँ ?
द्विधा विकल्पहीन हो गयी ।

Last Update: June 19, 2021

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