अम्मा सोहर की पंक्तियाँ गुनगुना रही हैं – “छापक पेड़ छिउलिया कि पतवन गहवर हो…”। मन टहल रहा है अम्मा की स्वर-छाँह में। अनेकों बार अम्मा को गाते सुना है, कई बार अटका हूँ, भटका हूँ स्वर-वीथियों में। कितनों को संगी बना लिया है अम्मा के गीतों से उठाकर, कितनों के गले मिल रोया हूँ, कितनों का विरह अपने प्राणों में भर लिया है, कितनों के उपालंभ सहे हैं,  कितनों की गालियाँ और महसूस किया है न जाने कितनों की टीस। अम्मा लगातार गाये जा रही हैं, स्वर भरभरा रहा है- “तेहिं तर ठाढ़ि हिरनियाँ मनइ मन अनमन हो “

अम्मा के स्वर काँपते नहीं थे पहले या शायद अम्मा ऐसे गीत नहीं गाया करती थीं पहले, या मेरे भीतर पहले अब-सी संवेदना की कोंपलें नहीं फूटी थीं। अम्मा तो गाती थीं, मैं सुनता नहीं था। आज सुन रहा हूँ, अम्मा का स्वर काँपने लगा है। अम्मा के गीत की हिरनी अम्मा की आत्मा में उतर आयी है जैसे, उसका विरह घहरा कर गिर गया है उनपर। गीत का हिरन मार दिया गया है। हिरनी की आशंका सही हो गयी है। वे गा रही हैं – “मचिया बइठैलीं रानी कौशिला हरिनी अरजि करैं हो”…। चावल से कंकड़ निकालते हाँथ अचानक ही जुड़ जाते हैं अम्मा के, मैं पास सरक आता हूँ। अम्मा गाए जा रही हैं- “रानी! माँस त सींझै ला रसोईयाँ खोलड़ि मोहिं बकसऽ हो…”। 

अम्मा मेरी ओर देख रही हैं, होंठ काँप रहे हैं, हाथ जुड़े हुए ही हिलने लगे हैं , मैं घबरा रहा हूँ। लग रहा है रानी कौशिल्या का सामंती अस्तित्व मुझमें समा गया है। हिरनी अरज कर रही है – “खोलड़ि मोहिं बकसऽ हो…”। मैं और भी विकंपित! क्या होगा खोलड़ी का? अम्मा शोकविह्वल असहाय भाव से क्रन्दन करती हिरनी का चित्र देख रही हैं। प्रार्थना के स्वर सुन रही हैं हिरनी से, मुझे सुना रही हैं-“खोलड़ी त धरब निकुंज बन मन समुझाइब हो / समुझि समुझि बनवाँ चरबै जानबि हरिना बइठल हो..”

अम्मा सिहर रही हैं , आँखों में आकर ठहर गयी है बूँद । इस बूँद का खारापन कौशिल्या के आचरण में उतर गया है जैसे। स्वर सुन रहा हूँ- कौशिल्या बोल रही हैं- “बाउरि भइलू हरिनियाँ…”। अम्मा ठहर गयी हैं , प्राणों में छायी करुणा दुबक गयी है क्षण भर के लिये। कौशिल्या का इनकार अम्मा के स्वर को कठोर बना रहा है-“सगरे अजोध्या के राम दुलरुवा डफिया मढ़इहैं हो ..”।  हिरनी का अस्तित्व लुट चुका है। असहाय भाव से विसूर रही है। उसकी दुनिया सूनी है। पर औचक! घड़ा फूट गया हो जैसे, ठहरा हुआ करुण भाव पुनः बह निकला है, असहायता जैसे सहाय्य हो गयी है । अम्मा आँसू पोंछ रही हैं …”जैसे सुन्न हमरो निकुंज बन अउर बृंदावन हो…” ।

मैं अंत सुनने को उत्सुक हूँ। सामंती व्यवस्था का पूरा चित्र आँखों के सामने घूम रहा है। तुलसी बाबा से इत्तेफाक नहीं करने का मन कर रहा है- “जे मृग राम के मारे, ते तन तजि सुरलोक सिधारे…”। हिरनी सोहर से निकल कर सामने खड़ी हो गयी। राम के जन्म का हिसाब माँग रही है। कौशल्या के मोद का सच दिखा रही है। मैं सिर झटकता हूँ- अम्मा गा रही हैं-“जैसे सुन्न हमरो निकुंज बन अउर बृंदावन हो / रानी! वइसे सुन्न होइहैं अजोध्या रमइया बिनु हो…”।


मूल सोहर एवं भावार्थ

छापक पेड़ छिउलिया कि पतवन गहवर हो
तेहिं तर ठाढ़ि हिरनियाँ मनइ मन अनमन हो॥१॥

[छिउली पेड़ की घनी छाँव के नीचे खड़ी हिरणी मन से अनमनी है।]

का मरलीं जल की मछरिया कि नाहीं बनवा सावज हो
काहें तूँ ठाढ़ि हिरनिया मनइ मन अनमन  हो॥२॥

[हिरण उसे यूँ अनमना देखकर पूछता है-  “क्या सभी तालाब सूख गये जिससे सारी मछलियाँ मर गयीं (जल कहाँ मिलेगा अब?) या सभी वन के तृण-पात सूख गये (चरने को क्या मिलेगा?) कि तुम इस तरह अनमनी होकर खड़ी हो।]

नाहिं मरलीं जल की मछरिया, नाहीं बनवाँ सावज हो
कौशिला रानी बाड़ीं गरभ से हरिना-हरिना करैं हो॥३॥

[हिरणी कहती है- “न तो तालाब सूख गये हैं, और न ही वन-प्रांतर तृण-रहित हुआ है। मैं तो उदास इसलिये हूँ कि कौशिल्या रानी गर्भवती हैं, और वो बार-बार खाने के लिये हिरण के मांस की इच्छा कर रहीं हैं। रानी तुम्हें मरवा डालेंगी।]

मचिया बइठैलीं रानी कौशिला हरिनी अरजि करैं हो
रानी! माँस त सींझै ला रसोईयाँ खोलड़ि मोहिं बकसऽ हो॥४॥

[हिरण मार दिया जाता है। दुःखी हिरणी सभा में बैठी हुई रानी कौशल्या से प्रार्थना करती है कि हिरण तो मार डाला गया। उसका मांस ही न रसोईं में पकेगा, मुझे कृपा करके उसकी खाल दे दी जाय!]

खोलड़ी त धरब निकुंज बन मन समुझाइब हो
समुझि समुझि बनवाँ चरबै जानबि हरिना बइठल हो॥५॥

[मैं अपने हिरण की खाल को ही वन में अपने साथ रखकर अपने मन को समझा लूँगी, और यह प्रतीति करते हुए कि मेरा हिरण मेरे सम्मुख बैठा है, वन में चर लिया करुँगी।]

बाउरि भइलू हरिनियाँ कि केइ बउरवलस हो
सगरे अजोध्या के राम दुलरुवा डफिया मढ़इहैं हो ॥६॥

[रानी रुष्ट हो जाती हैं। कहती हैं- हिरणी! क्या तुम पागल हो गयी हो! या किसने तुम्हें यह सब सिखा दिया है! तुम्हारे हिरण की खाल से तो सम्पूर्ण अयोध्या के दुलारे राम को खेलने के लिये खंजड़ी (डफली) बनेगी। खाल भी तुम्हें नहीं मिलेगी।]

जैसे सुन्न हमरो निकुंज बन अउर बृंदावन हो
रानी! वइसे सुन्न होइहैं अजोध्या रमइया बिनु हो॥७॥

[हिरणी दुखित होकर शाप देती है कि हे रानी! जैसे तुमने मेरे वन और मन के वृंदावन को सूना कर दिया है हिरण के बिना, वैसे ही यह अयोध्या इस राम के बिना सूनी हो जायेगी।]

लोक की परिपाटी के अनुसार इस गीत के रूप-स्वरूप स्थान-स्थान पर तनिक बदले-से हैं, टिप्पणियों में दूसरे प्रचलित रूपों का उल्लेख भी है, परन्तु भाव एक है, व्यंजना भी एक ही। टिप्पणी में गिरिजेश जी ने इस गीत का स्थानीय रूप लिख दिया है।