करुणावतार बुद्ध- 1, 2, 3, 4, 5 के बाद प्रस्तुत है छठीं कड़ी-
करुणावतार बुद्ध
सिद्धार्थ: यह कौन-सा अतलान्त स्पर्श मेरे मन-प्राणों को छूकर चला गया है! यह कैसा मृदुल स्पर्श मेरे सिर को शीतलता प्रदान कर रहा है! यह किसका चुम्बन मेरे कपोलों से आ जुड़ा है! लगता है मेरी जन्मदात्री माँ और पालनहार पिता, दोनों मेरे समीप आ गये हैं। ओ ज्योतिर्मय स्वर! मैं तुम्हें नमन करता हूँ। तुम्हारी पंक्तियाँ ध्वनित कर रही हैं- “मुझे शब्द दो !” तुम्हारे शब्दों की टेर जैसे मुझे घेर कर कह रही है- “मुझे अर्थ दो”, और अर्थ उत्कंठित होकर गुहार कर रहे हैं- “मुझे सार्थकता दो !” तुम्हारी दृष्टि मुझे सहला-सहला कर कह रही है- ’दृष्टि को विस्तार दो! क्षण को विराट बना दो! कर्मधारय बनो! ओ रे, अव्ययीभाव, द्वंद्व को निस्तार दे दो!’
नहीं, नहीं, ऐसे अब हम नहीं रहेंगे। एक पल भी और अब हम नहीं सहेंगे। अब नहीं मुड़ेंगे, न किसी तट से जुड़ेंगे। आगे बढ़ेंगे, बढ़ेंगे, बढ़ेंगे।
(वनदेवता की वाणी तरु-तरु, तृण-तृण से अनुगुंजित होती है। सिद्धार्थ अवाक खड़े रह जाते हैं। उनकी आँखों से दो बूँद छलक जाती है।)
वनदेवता: महामना! समय के रंध्र से अपने विजय-रथ को निकालो! तुम्हारे अनेक जन्मों के पुण्य तुम्हारे मर्त्य-जीवन में यश और वैभव बन कर उगे थे। तुम्हारे पूर्व-जन्मों की कृतियाँ ही इन लोकों में बिखरी हैं। तुम्हारे तप की स्मृतियाँ, तुम्हारे धर्म की पताकायें अनेक लोकों में लहरायेंगी। तुम्हारे पूर्वजन्म के कलुष, संशय, काम-क्रोध, मोह, लोभ के संस्कार जो तुम्हारे मर्त्य जीवन की अर्गलायें थीं, वे अब स्वप्न की तरह बिखर जायेंगी। तुम्हारा चैतन्य-विलास विश्व की अज्ञान से अंधी आँखों का काजल होगा। ओ तेजस्वी तनय! तुम्हें आशीर्वाद दूँ इस के पूर्व मेरा सजल प्रणाम स्वीकार करो!
सिद्धार्थ: मैं अखिल धरा की पीड़ा का शमन कर सकूँ, यह वर दो। सारा संसार दुखी है, दुखमोचन कर सकूँ।
वनदेवता: ओ विभूति! तुम चले ही इसीलिये हो। सब होगा, सब होगा। तुम्हारे चरण नहीं हारेंगे। बढ़े चलो,चढ़े चलो। तिमिर-गुहा को चीर-चीर ज्योति-पंथ प्रशस्त करो! जो पिछली मोड़ पर छूट गये, जो तपती रेत से घबरा कर ठिठक गयेम ओ पथिक! उन सबके लिये तूँ आज राह ढूँढ़ दे।
(अरुणोदय आसन्न है। प्रातः विहंग की ध्वनि सुनायी पड़ती है। सहसा वन-प्रांतर अदृश्य हो जाता है। ब्राह्मणों की एक जोड़ी पुष्करिणी में स्नान कर सिद्धार्थ के समीप आ जाती है।)
पहला ब्राह्मण: ओ बटोही! पलभर तो ठहर, जरा मेरी भी सुन लो! तुम राजकुमार हो, मुझे पता है। यह भी पता है कि तुम किस पीड़ा का वरण किये त्वरित चरण चले जा रहे हो। सुनो, सुनो! जीवन की शाश्वत मान्यतायें जीवन की आदर्शोन्मुखी भावना से ही संभावित हैं। वैष्णवी वृत्ति लेकर भक्ति-मार्ग का वरण करो! ईश्वरावलम्बन ही मार्ग है।
दूसरा ब्राह्मण: चिन्तन की बंजर भूमि में क्यों कदमताल करने चल पड़े हो! हरि से नेह लगाओ! “हरि से लागा रहु रे भाई, तेरी बनत-बनत बन जाई!”
सिद्धार्थ: मेरे प्रश्नों का उत्तर दो विप्रवर! क्या रोग, जरा, व्याधि दुख को मिटाना मानव का अभिप्रेत नहीं! क्या तुम यह कर सकते हो? अब शास्त्रार्थ का समय नहीं है।
(सिद्धार्थ उनसे हाँथ छुड़ा, मुक्त होकर आगे बढ़ जाते हैं।)
बहुत अच्छी चल रही है कथा बधाई
बहुत सुंदर!
क्या रोग, जरा, व्याधि दुख को मिटाना मानव का अभिप्रेत नहीं? यह प्रश्न तो अभी भी मनुष्य के सामने अनुत्तरित खड़ा है।
बुद्ध के चित्र की ज्यामिति मन मोह गई। अपने प्रोफाइल में जो चित्र मैंने लगाया है, वह बहुत गूढ़ लगा मुझे । पद्म पत्रों, पंखुड़ियों और डंडियों से बुद्ध का पूरा चेहरा रचाया है। एक बार ध्यान से देखिएगा।
____________________________________
शब्द , अर्थ, सार्थकता – यही तो समस्याए हैं।
कर्मधारय बनो ! ओ रे, अव्ययीभाव, द्वंद्व को निस्तार – ये हुई मास्साब वाली बात। एक ध्यान रखिएगा – इस श्रृंखला को दार्शनिकता से मुक्त रखिएगा। यही चुनौती है।
अच्छा, राजकुमार सिद्धार्थ की बजाय कोई सामान्यजन यह सम्यक ज्ञान पाता तो होता बुद्ध?
मुझे संशय क्यों होता है?
यह देश/विश्व कुलीन/राजघराने से प्रभावित होता रहा है! नहीं?
हिमांशु भाई !
हमें विश्वास है कि यह श्रृंखला धुर दार्शनिकता से मुक्त रहेगी क्योंकि
विप्र – शोर को सिद्धार्थ बड़ी कुशलता से नकारते हैं और कबीर जैसे
उनके विचार स्पष्ट हैं — '' जरा मुई न भय मुआ कुसल कहाँ ते होय '' |
यह साहित्यिक रूप बना रहेगा |
@ गिरिजेश राव
बुद्ध चित्रों पर करीने से पोस्टनुमा जानकारी देने की कृपा कीजिये |
चित्र – समझ में बहुत कच्चा हूँ , इसलिए ऐसा निवेदन है आपसे |
हाँ देव जी ( ज्ञान दत्त जी ) की बात पर विमर्श बने तो और मजा आये ..
अखिल धरा की पीड़ा का शमन कर सकूँ, यह वर दो ।
सारा संसार दुखी है, दुखमोचन कर सकूँ …..
क्या सिद्धार्थ दुःख मिटने का मार्ग खोज पाए …क्या उनके अनुयायी दुःख मुक्त हो चुके …
अगली प्रविष्टियों में ही मिल सकेगा इनका जवाब ….इन्तजार रहेगा ….
आदरणीय ज्ञानदत्त जी का प्रश्न वाजिब है …
बहुत से उर्वर मस्तिष्क इसी से जूझते होंगे …!!
@ ज्ञानदत्त जी,
इस विषय पर लेख की प्रतीक्षा कीजिए। क़्यू लम्बी है – थोड़ा समय(आलसी के हिसाब से) लगेगा।
@अमरेन्द्र जी,
आप भी प्रतीक्षा कीजिए। फल मीठा होगा।
हाँ, एक बात कहना भूल गया। सम्यक ज्ञान प्राप्त व्यक्ति गुमनाम नहीं रह सकता। यदि है तो उसे ज्ञान नहीं ज्ञान का भ्रम मिला होगा। वह सामान्य हो या राजकुमार – इससे फर्क नहीं पड़ता। बिल्कुल नहीं पड़ता। . . ज्ञानी प्रभावित करेगा ही चाहे जैसी भी पृष्ठभूमि हो।
पिछली प्रवृष्ठि को तो पढ़ नही सका हूँ किन्तु इस प्रविष्ठी पर तो काफी विचार प्रवाह हो रहा है, विचारक भी जब गिरि और ज्ञान जी जैसे हो तो पढ़ने का आनंद तो कुछ और ही होगा।
समष्टि की पीड़ा आकंठ किये बुद्ध का यह प्रयाण जैसे जीवंत सा हो उठा हो !
मगर तुम अभी मत बनो बुद्ध मित्र बार बार कह रहा हूँ !
इतना जीवित सा वातावरण..कैसे रच दिया तूने ओ रचनाकार…!
वाह..! बेहतरीन..!
आपकी कल्पना कितनी मोहक, प्रदीप्त और प्रखर है..!