माँ केन्द्रित दूसरी कविता पोस्ट कर रहा हूँ। इस कविता का शीर्षक और इसके कवि का नाम मुझे नहीं मालूम, यदि आप जानते हों तो कृपया यहाँ टिप्पणी में वह नाम जरूर लिखें।
पिता
मैं बहुत थोड़ा हूँ तुम्हारा
और बहुत सारा हूँ उसका
जिसका नाम तुम्हारे दफ़्तर के दोस्त नहीं जानते
नहीं जानती सरकारी फाइलें
नहीं जानती मेरी टीचर
नहीं जानते मेरे दोस्त भी…..
मैं
बहुत सारा हूँ उसका
जिसका नाम नहीं लिखा जायेगा
उसके ही गेट पर टँगने वाली तख़्ती पर
जिसका नहीं लिखा जायेगा कोई इतिहास……
मैं
बहुत सारा हूँ उसका
जिसने मुझे बूँद से पहाड़ तक ढोया
सहन की असह्य पीड़ा
और
मृत्यु के लिये रही तैयार
केवल और केवल मेरी पैदाईश के लिये…..
अच्छी है ! लगभग ऐसे ही भावो की एक आप की भी है शायद !
ग़मगीन करती कविता !
बहुत ही सुन्दर.
लगता है पिता का दिन नहीं आया है।
पिता सदैव ही गौण रहा है, बावजूद इस के कि सदियों से मनुष्यों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। हाँ उस का महत्व बन सकता है तभी जब वह मां बन कर दिखाए।
बहुत सुंदर भाव. शुभकामनाएं.
रामराम.
अंदर तक छू जाने वाली कविता। इस हेतु आभार।
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कविता तो सुन्दर है. आभार.
ghre ahsas liye ,sundar kvita .
बेहद उम्दा…