Flowers (Photo credit: soul-nectar) |
कविता: प्रेम नारायण ’पंकिल’
जो बोया वही तो फसल काटनी है
दिया लिख अमा पूर्णिमा लिखते-लिखते।
पथिक पूर्व का था चला किन्तु पश्चिम
दिया राहु लिख चन्द्रमा लिखते-लिखते।
रहा रात का ही घटाटोप बाँधे
न बाहर निकलकर निहारा सवेरा
कुआँ खनने वाले को जाना है नीचे
हुआ ऊर्ध्वगामी महल का चितेरा,
हमें कर्म ही रच रहे हैं हमारे
दिया क्रोध ही लिख क्षमा लिखते-लिखते।
बना हंस पर धूर्त बगुले की करनी
अधोगति में सोया अधोगति में जागा
कलाबाजियाँ कर कँगूरे पर बैठा
गरुड़ हो सकेगा कभीं भी क्या कागा,
कमल रज के बदले लिया पोत कीचड़
दिया टाँक खर्चा जमा लिखते-लिखते।
यह बुढ़िया स्वयं खा रही है ढमनियाँ
सिखाती है औरों को सदगुण ही सुख है
लबालब भरेगा सलिल कैसे ’पंकिल’
जो औंधा किया अपनी गागर का मुख है,
चिकित्सक बना भी तो कैसा अनाड़ी
दिया टाँक मिर्गी दमा लिखते-लिखते।
यह बुढ़िया स्वयं खा रही है ढमनियाँ
सिखाती है औरों को सदगुण ही सुख है
लबालब भरेगा सलिल कैसे ’पंकिल’
जो औंधा किया अपनी गागर का मुख है,
चिकित्सक बना भी तो कैसा अनाड़ी
दिया टाँक मिर्गी दमा लिखते-लिखते ।
बहुत ही सुंदर कविता.
धन्यवाद
बहुत ही सुंदर कवित … धन्यवाद।
यह पढ़ते ही लग गया था कि बाबू जी की कविता है -उनकी सृजन क्षमता को साष्टांग ! कोई टिप्पणी नहीं कोई भाष्य नही ! सीधे अंतस में उतरती गयी यह कविता ! और अभी विचार मन के क्रोड़ में गर्भकाल बितायेंगें ! फिर चर्चा होगी !
पुत्र कभी पिता नही हो सकता ! न विज्ञान में न साहित्य में ! वह साहित्यकार झूंठ कहता है -कि चाईल्ड इस तरह फादर ऑफ़ मैन ! हाँ यह जरूर सही है -आत्मा वै जायते पुत्रः !
यही है असली ज्ञान -लेखनी .आज के कवियों को इन रचनाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए .
ग्रेट! सरल और अर्थपूर्ण। और प्रस्तुत करें अपने पिताजी की रचनायें।
बहुत ही सुंदर, शिक्षा से भरपुर.
धन्यवाद
बहुत सहज और सटीक
रामराम.
सुन्दर कविता है ।
bahut hi sundar!!
mera utsaah vardhan karne ke liye bhi aapka bahut bahut dhanyavad bhaiya !!
Mahesh
बाबूजी की यह कविता वाकई दिल को छू गई.. आभार इसे साझा करने के लिए..