सबसे पहले स्पष्ट करूँ कि इस आलेख की प्रेरणा और प्रोत्साहन अरविन्द जी की टिप्पणी है, जो उन्होंने रीमा जी की प्रविष्टि पर की है। रीमा जी ने बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम मुहावरे को वृद्ध-परिहास का मुहावरा मान लिया है। वैसे तो इस प्रविष्टि पर मैंने अपनी टिप्पणी कर दी थी, परन्तु वह वस्तुतः अन्य-संदर्भित थी। अरविन्द जी की टिप्पणी पढ़कर और उनके द्वारा अपनी पीठ-थपथपाहट से अनुप्रेरित होकर यह टिप्पणी लिखनी चाही थी। टिप्पणी का विस्तार हो गया, इसलिये इसे प्रविष्टि के तौर पर यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम मुहावरा साहित्य में बूढ़ों के साथ बदसलूकी का इजहार करने के लिये सम्मिलित नहीं किया गया है । यह एक कूट वाक्य है, जो निरर्थक को सार्थक ढंग से सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। रामचरित मानस में नारद को मिथ्या आभास था कि वे ’हरि’ की सुन्दरता लेकर सुन्दर हो गये हैं, और शिव गणों ने इसी तथ्य को कूट-उक्ति में समझाया था –
करहिं कूट नारदहिं सुनायी। नीक दीन्ह हरि सुंदरताई।
यह नारद पर दोषारोपण नहीं था, नारद की आंख का विमोचन था।
हम तो इस मत के हैं कि समय बली होता है। उसकी गति में गतिमान रहना ही प्रगति है। उसके विरुद्ध खड़े होना नहीं। तुलसीदास ने कहा- “जस काछिय तस चाहिय नाचा।” अर्थात जैसी कछनी हो, वैसी नाच हो। अर्थात युवक की आकृति में वृद्ध की प्रकृति ठीक नहीं। तो बूढ़ी घोड़ी सम्मानिता है, अनुभव से भरी है तो जैसी है वैसी बनी रहे।
व्यंग्य एवं परिहास में अंतर है, इसे समझना होगा
व्यंग एवं परिहास में अन्तर है। परिहास में अपमान है, व्यंग में विश्लेषण है। एक में Indication है, दूसरे में Cancellation है। बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम मुहावरे की उस शक्ति का परिचायक है जिसे साहित्य में ’औचित्य-सम्प्रदाय’ के अन्तर्गत रखा जा सकता है। अतः इसमें किसी भी साहित्य-प्रेमी को रस या अलंकार खोजना ठीक नहीं है। जो है, ठीक वही कह देना अर्थात “अरी बूढ़ी, लाल लगाम फेंक दे! निगोड़ी, तेरी अक्ल को यह क्या सूझा?” ऐसा यथार्थवादी कथन साहित्य नहीं कहता। साहित्य कहता है- “बूढ़ी घोड़ी ने लाल लगाम पहन ली है।” संभावना यही है कि बेचारी बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम की लाली में लाल न हो पायेगी। इसलिये इस मुहावरे ने धीरे से घाव पर उंगली रखी है कि जो अनुकरणीय है, धारण वही करना चाहिये। अतः इस मुहावरे का साहित्य में विश्लेषित अर्थ ही ग्रहण किया जाना चाहिये।
आदरणीय अरविन्द जी की टिप्पणी कितनी सार्थक है कि “एक भारतीय उम्रदराज ग्राम्य महिला साडी की बजाय स्कर्ट आदि परिधान में समाज में उठने बैठने लगे तो वह हास्यास्पद हो जायेगा !” और अपनी स्वाभाविकता की कपाल क्रिया हो जायेगी।
वेश कार्यकुशलता को भी संकेतित करता है
एक बात और, इस मुहावरे को एक और अर्थ में भी प्रयुक्त मान सकते हैं- “देखो न, लाल लगाम में यह बूढ़ी घोड़ी भी नयनाभिराम लग रही है। ’गोस्वामी जी’ ने लिखा है : “सियनि सुहावनि टाट पटोरे “, अर्थात टाट में भी रेशम की बखिया अच्छी लगती है। कितना मजा है, टाट भी रेशमी हो गया है। उसकी इज्जत बढ़ी है :
“तन बूढ़ा होता है होने दो, मन तो सदा जवान चाहिये।”
यह मुहावरा बूढ़े को सम्मान देने के लिये भी कहीं से घुस आया है। अब बूढ़ी बूढ़ी नहीं रही, लाल लगाम वाली लोकप्रिय प्राणी हो गयी है। इसमें वृद्धावस्था का गुरुत्वाकर्षण है, भण्डाफोड़ नहीं।
फिर यह भी तो देखिये कि वेश कार्यकुशलता को भी तो संकेतित करता है, अवस्था से क्या मतलब? खयाल करिये कि क्या सुकुमारी रानी भी मर्दानी नहीं हो गयी थी-
“खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।” या
“अस्सी बरस की हड्डी में भी जागा जोश पुराना था, कहते हैं कि कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।”
भृगु-सुत परशुराम का स्मरण करिये कि ब्राह्मण थे, पर मन के वेगानुसार कुठार भांजने लगे, तब अयोध्या के बालकों को कहना पड़ा –
वेश बिलोके कहसि कछु, बालकहूँ नहिं दोस ।
अतः घोड़ी बूढ़ी है तो क्या, मन लाल लगाम वाला है, तो क्या लाल लगाम नहीं पहनेगी? सार्थक है यह मुहावरा।
रीमा जी ने वृद्ध-विमर्श शब्द देकर इस मुहावरे की गरिमा और बढ़ा दी है। यह दृष्टिकोण झोर दे रहा है। यदि दलित-विमर्श, नारी-विमर्श तो वृद्ध-विमर्श क्यों नहीं?
हमें इस तरह की बात भी कभी कभी करनी चाहिए। आखिर बुजुर्ग भी हमारे समाज के अंग हैं जिन्हों ने इस समाज को कुछ न कुछ दिया है। वे कैसे प्रसन्न रहें इस का खयाल तो रखना चाहिए। पिता पुराने और पुरानी डिजाइन के कपड़ों से काम चला रहे हैं। तो आप उन्हें एक टी-शर्ट और जीन्स या कार्टराइज़ का ट्राउजर उपहार में दीजिए। कैसे प्रसन्न होते हैं। पहनेंगे भी और सब को बताएँगे भी की बेटे ने ला कर दी है। और यदि बहू ला दे तो सोने में सुहागा है।
परिवार में प्रसन्नता का सूत्र ही यही है कि हम एक दूसरे को प्रसन्न रखने के लिए क्या करते हैं? यदि बडे बच्चों की और बच्चे बड़ों की इच्छाओं का ख्याल रखने लगें तो परिवार में सदैव आनंद बरसता रहे।
वाह वाह! टिप्पणी को इतने विस्तार से खोला है आपने, पूरा पढ़ा तब पता चला कि माजरा क्या है। बहुत ही सुंदर उदाहरण दिये हैं आपने, लगता है किसी स्कूल में मास्साब हैं! 🙂
इसी पर मुझे गोलमाल फिल्म का वही दृश्य याद आ जाता है, जब अमोल पालेकर नकली जुड़वां भाई बनकर उत्पल दत्त को “बुड्ढा” बोलता है। जवाब में उत्पल दत्त जी कहते हैं “बुड्ढा तो मैं हूँ ही”।
दिनेशराय जी की बात हमेशा की तरह आंखों पर लेने लायक है!
पता नहीं, महाकवि (बाबा) केशव इस पोस्ट पर क्या टिप्पणी करते।
बेचारे अपने सन जैसे सफेद केशों पर जवान स्त्रियों के बाबा सम्बोधन से कितने आहत थे।
कभी हमारा मन होता है कि बाइस साल के लड़के की छद्म आईडी से ब्लॉग लिखें!
बहुत बढिया पोस्ट … सही है …यदि ’दलित-विमर्श’, ’नारी-विमर्श’ तो ’वृद्ध-विमर्श’ क्यों नहीं ?
बहुत सही है.
रामराम.
बहुत अच्छा विश्लेषण किया है ।
आपके साहित्यकार ने तो बस गजब ही ढा दिया है – “सियनि सुहावनि टाट पटोरे “, तुलसी इस संदर्भ में कहते हैं की मेरी रचना रामचरित मानस तो बस एक टाट भर है मगर उस पर पैबंद राम नाम का है जिससे यह भी सुन्दर हो गयी है ! हाँ अगर पैबंद /लगाम राम नाम के मानिंद कुछ भी हो जाय तो फिर कोई मुहावरा किसी का मुंह बिराने के बजाय क्या खुद मुस्कुरा नहीं पडेगा ? चलिए राम नवमीं के दिन हमने राम नाम की चर्चा कर इस पावन पर्व को अपनी स्नेहान्जलि दे दी !
पिता जी को मेरा नमन !
आपसे हमेशा ही साहित्य के बारे में कुछ नया सीखने के लिए मिलता है। इस विश्लेषण के लिए धन्यवाद! अब तो विचारों का एक बड़ा झुन्ड घूम रहा है मस्तिश्क में, इस विषय पर। उन्हें समेटने और फिर हिन्दी में लिखने में थोडा समय तो लगेगा; पर अगर शाहरुख के अन्दाज़ में कहूँ तो, “पिक्चर अभी बाकी है!”
बहुत सही है….
अभी ट्विटर पर यह प्रविष्टि देखा..
अब तो मेरी आज की रात यहीं गुज़रेगी !
लगता कि है कि खूब जमेगा रंग
जब बैठेगें बुड्ढा घोड़ा.. लाल लगाम और सच्चा मन !
खुश रहिये, इसी बहाने भूले संदर्भों की आवृति हो रही है !
हिन्दी मुहावरों की अच्छी जानकारी। और अधिक जानकारी के लिए यह पोस्ट पढ़ें