अपने ऊबड़-खाबड़ दर्द की जमीन
न जाने कितनी बार
मैंने बनानी चाही
एक चिकनी समतल सतह की भाँति
पर कभी सामर्थ्य की कमी
तो कभीं परिस्थिति का रोना रोता रहा ।
एक दिन
मौसम बदला, और
सामर्थ्य ने ’हाँ’ की
तो आशाओं, संवेदनाओं और विवेक के
तैयार मसाले से
मैंने चढ़ा दिया उस जमीन पर
खुशी का एक पलस्तर,
फिर सूखने को कुछ क्षण उसे
कि सूख कर कड़ा हो जाय –
पत्थर ही नहीं, लोहा बन जाय-
निश्चिंत ही हुआ था
कि किसी ने छोड़ दिये
अपने पद चिह्न उस पर
टूट गयी कोर भी ।
ओह ! हिमांशु इन दिनों यह वियोग क्यों भारी हो उठा है ?
वाह हिमांशु जी, बहुत गहन रचना है.
कुछ अजीब सी लग रही है यह कविता, जैसी हम लोग तीस साल पहले पढ़ा करते थे। अभिव्यक्ति अच्छी है।
वाकई संवेदनशील और मनोदशा को चित्रित करते भाव. आपने कुशलता से व्यक्त किये हैं.
रामराम.
“आशाओं, संवेदनाओं और विवेक के
तैयार मसाले से
मैंने चढ़ा दिया उस जमीन पर
खुशी का एक पलस्तर”
अद्भुत बिम्बों का प्रयोग…
सुंदर रचना, मन को भारी करती हुई
the poem is good but i found it incomplete i dont know why but it seems something is missing
ज़िन्दगी की विडम्बना को दर्शाती रचना
Waah !!
Bahut bahut sundar…..
Bhavpoorn kavita hetu badhai.
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
टिपण्णी हीन हूँ मैं?
प्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
हिमांशू जी मकडी वली कहानी तो सुनी होगी मगर जो आकाश को छूनने की तमन्ना रखते हैं वो निराश नहीं होते निराशा मे भी आशा् की किरण खोज लेते हैं अभिव्यक्ति अच्छी है अभार